पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/४५९

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

- भटार्क-हमारा हृदय कह रहा है, और आये दिन साम्राज्य की जनता, प्रजा सभी कहेगी। अनन्तदेवी-मुझे विश्वास नही होता। भटार्क-महादेवी ! कल सम्राट् के समक्ष जो विद्रूप और व्यंगबाण मुझ पर बरसाए गये है, वे अन्तस्तल मे गडे हुए हैं। उन्हे निकालने का प्रयत्न नही करूंगा, वे ही भावी विप्लव मे सहायक होगे। चुभ-चुभकर वे मुझे सचेत करेगे। मैं उन पथ- प्रदर्शको का अनुसरण करूंगा। बाहुबल से, वीरता से और अनेक प्रचण्ड पराक्रमों से ही मुझे मगध के महाबलाधिकृत का माननीय पद मिला है, मैं उस सम्मान की रक्षा करूंगा। महादेवी ! आज मैंने अपने हृदय के मार्मिक रहस्य का अवस्मात् उद्घाटन कर दिया है। परन्तु वह भी जान बूझ कुछ समझकर । मेरा हृदय शूलो के लोहफलक सहने के लिए है, क्षुद्र विष-वाक्यवाण के लिए नहीं । अनन्तदेवी-तुम वीर हो भटार्क ! यह तुम्हारे उपयुक्त ही है। देवकी का प्रभाव जिस उग्रता से बढ़ रहा है उसे देखकर मुझे पुरगुप्त के जीवन मे शंका हो रही है। महाबलाधिकृत, दुर्बल माता का हृदय उसके लिये आज ही से चिन्तित है, विम्ल :: गम्राट् की मति एक-सी नही रहती वे अव्यवस्थित और चचल है। इस अवस्था मे वे विलास की अधिक मात्रा से केवल जीवन के जटिल सुखो की गुत्थियां सुलझाने मे व्यस्त है। भटार्क-मैं सब समझ रहा हूँ। पुष्यमित्रो के युद्ध मे मुझे सेनापति की पदवी नही मिली, इसका कारण भी मै जानता हूँ। मैं दूध पीनेवाला शिशु नही हूं और यह मुझे स्मरण है कि पृथ्वीसेन के विरोध करने पर भी आपकी कृपा से मुझे महाबलाधिकृत का पद मिला है। मै कृतघ्न नही हूँ, महादेवी ! आप निश्चित रहे । अनन्तदेवी-पुष्यमित्रो के युद्ध मे भेजने के लिये मैंने भी कुछ समझकर उद्योग नही किया। भटार्क ! क्रान्ति उपस्थित है, तुम्हारा यहां रहना जावश्यक हे । भटार्क-क्रान्ति के सहसा इतने समीप उपस्थित होने के तो कोई लक्षण मुझे नही दिखाई पड़ते। अनन्तदेवी-राजधानी में आनन्द-विलास हो रहा है, और पारसीक मदिरा की धारा बह रही है। इनके स्थान पर रक्त की धारा बहेगी ! आज तुम कालागुरु के गन्धधूम से सन्तुष्ट हो रहे हो, कल इन उच्च सौध-मन्दिरो मे महापिचाशी की विप्लव ज्वाला धधकेगी ! उस चिरायंध की उत्कट गन्ध असह्य होगी। तब तुम भटार्क ! उस आगामी खण्ड-प्रलय के लिए प्रस्तुत हो कि नही ? (ऊपर देखतो हुई) उहूं प्रपञ्चबुद्धि की कोई बात आज तक मि ग नही हुई। भटार्क-कौन प्रपञ्च बुद्धि ? अनन्तदेवी-सूची-भेद्य अन्धकार मे छिपनेवाली रहस्यमयी नियति का- स्कन्दगुत विक्रमादित्य : ४३९