पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/४५५

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. मातृगुप्त-मैं तो अभी यों ही बैठा हूँ। मुदगल --क्या बैठे-बैठे काम चल जाता है ? तब तो भाई, तुम बड़े भाग्यवान हो। कविता करते हो न ? भाई ! उसे छोड़ दो। मातृगुप्त-क्यों ? वही तो मेरे भूम्बे हृदय का आहार है ! कवित्व-वर्णमय चित्र है, जो स्वर्गीय भावपूर्ण संगीत गाया करता है ! अन्धकार का आलोक से, असत् का मत् से जड़ का चेतन से और बाह्य जगत् का अन्तर्जगत् से सम्बन्ध कौन कराती है ? कविता ही न ! मुद्गल-परन्तु हाथ का मुख से, पेट का अन्न से और आँखों का निद्रा से भी सम्बन्ध होता है कि नही ? कभी इसको भी सोचा-विचारा है ? मातृगुप्त संसार में क्या इतनी ही वस्तुएं विचारने की हैं ? पशु भी इनकी चिन्ता कर लेते होंगे। मुद्गल -और मनुष्य पशु नही है, क्योंकि उसे बातें बनाना आता है-अपनी मूर्खताओं को छिपाना, पापों पर बुद्धिमानी का आवरण पढ़ाना आता है। और वाग्जाल की फांस उसके पास है। अपनो घोर आवश्यकताओं मे कृत्रिमता बढ़ाकर, सभ्य और से कुछ ऊँचा द्विपद मनुप्य, पशु बनने से बच जाता है। मातृगुप्त-होगा, तुम्हारा तात्पर्य क्या है ? मुद्गल-स्वप्नमय जीवन छोड़कर विचारपूर्ण वास्तविक स्थिति में आओ। ब्राह्मण-कुमार हो, इमीलिये दया आती है । मातृगुप्त क्या करूँ ? मुद्गल -मै दो-चार दिन मे अवन्ती जाने वाला हूँ; युवराज भट्टारक के पास तुम्हें रखवा दूंगा। अच्छी वृत्ति मिलने लग जायगा । है स्वीकार ? मातृगुप्त पर तुम्हें मेरे ऊपर इतनी दया क्यों ? मुद्गल-तुम्हारी बुद्धिमता देखकर मैं प्रसन्न हुआ हूँ। उसः दिन से मैं खोजता था। तुम जानते हो कि राजकृपा का अधिकारी होन के लिए समय की आवश्यकता है। बड़े लोगों की एक दृढ़ धारणा होती है कि, 'अभी टकराने दो, ऐगे बहुत आया- जाया करते हैं।' मातृगुप्त-तब तो बड़ी कृपा है। मैं अवश्य चलूंगा। काश्मीरमण्डल में हूणों का आतंक है, शास्त्र और संस्कृत विद्या को कोई पूछने वाला नही। म्लेच्छाक्रान्त देश छोड़कर राजधानी मे चला आया था। अब आप ही मेरे पथ-प्रदर्शक हैं। मुद्गल- -अच्छा तो मैं जाता हूँ, शीघ्र ी मिलूंगा, तुम चलने के लिये प्रस्तुत रहना । (जाता है) मातृगुप्त-काश्मीर ! जन्मभूमि ! जिसकी धूलि में लोटकर खड़े होना सीखा, स्कन्दगुप्त विक्रमादित्य : ४३५