पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/४५४

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- कुमारगुप्त-यह अबोध विदेशी हंसोड़ है। अनन्तदेवो -तब भी सीमा होनी चाहिए । धातुसेन -चाणक्य का नाम ही कौटिल्य है। उनके सूत्रो की व्याख्या करने जाकर ही यह फल मिला। क्षमा मिले तो एक बात और पूछ लं, क्योकि फिर इस विषय का प्रश्न न करूंगा। अनन्तदेवी-पूछ लो। धातुसेन उसके अनर्थशास्त्र मे विषकन्या का"" कुमारगुप्त-(डॉटकर) चुप रहो । [नर्तकियों का गाते हुए प्रवेश] न छेडना उम अतीत स्मृति से खिचे हुए बीन-तार कोकिल । करुण रागिनी तड़प उठेगी सुना न ऐसी पुकार कोकिल । हृदय धूल मे मिला दिया है उसे चरण-चिह्न-सा किया है। खिले फूल सब गिरा दिया है न अब बसन्ती बहार कोकिल । सुनी बहुत आनन्द-भैरवी विगत हो चुकी निशा-माधवी। रही न अब शारदी करवी न तो मघा की फुहार कोकिल । न खोज पागल मधुर प्रेम को न तोडना और के नेम को। बचा विरह मौन के क्षेम को कुचाल अपनी सुधार कोकिल । [मन्द होते प्रकाश के साथ दृश्यान्तर] तृतीय दृश्य [पथमें मातृगुप्त] मातृगुप्त -विता करना अनन्त पुण्य का फल है। इस दुराशा और अनन्त उत्कण्ठा मे कवि-जीवन व्यतीत करने की इच्छा हुई। संसार के समस्त अभावो को असन्तोष 'हकर हृदय को धोखा देता रहा। परन्तु कमी विडम्बना ! लक्ष्मी के लालो का भ्रू-मन और क्षोभ की ज्वाला के अतिरिक्त मिला क्या | -एक काल्पनिक प्रशंसनीय जीवन, जो कि दूसरो की दया मे अपना अस्तित्व रखता है ! मञ्चित हृदय-कोश के अमूल्य रत्नो की उदारता, और दारिद्रय का व्यंग्यात्मक कठोर अट्टहास, दोनो की विषमता की कौन-सी व्यवस्था होगी। मनोरथ को-भारत के प्रकाण्ड बौद्ध पण्डित को परास्त करने में मैं भी मबकी प्रशंसा का भाजन बना। परन्तु हुआ क्या ? मुद्गल-(प्रवेश करके) कहिये कविजी | आप तो बहुत दिनों पर दिखाई पड़े ! कुलपति की कृपा मे कही अध्यापन-कार्य मिल गया क्या ? ! ४३४ प्रमाद वाङमय