पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/४५१

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द्वितीय दृश्य [कुसुमपुर के राज-मन्दिर में सम्राट कुमारगुप्त और पार्षद] धातुसेन -परम भट्टारक ! आपने भी स्वयं इतने विकट युद्ध किये हैं । मैंने तो समझा था, राजसिंहासन पर बैठे-बैठे राजदण्ड हिला देने से ही इतना बड़ा गुस- साम्राज्य स्थापित हो गया था, परन्तु- कुमारगुप्त-(हंसते हुए) तुम्हारी लंका में अब राक्षस नहीं रहते ? क्यों धातुसेन ! धातुसेन-राक्षस यदि कोई था तो विभीषण, और बन्दरों में भी एक सुग्रीव हो गया। दक्षिणापथ आज भी उनकी करनी का फल भोग रहा है। परन्तु हो, एक आश्चर्य की बात है कि महामान्य परमेश्वर परम भट्टारक को भी युद्ध करना पड़ा। सुना था रामचन्द्र ने तो जब युवराज भी न थे तभी युद्ध किया था। सम्राट् होने पर भी तुद्ध कुमारगुप्त-युद्ध तो करना ही पड़ता है। अपनी सत्ता बनाये रखने के लिए यह आवश्यक है। धातुसेन-अच्छा तो स्वर्गीय आर्य समुद्रगुप्त ने देवपुत्रों तक का राज्य विजय किया था, सो उनके लिये परम आवश्यक था? क्या पाटलिपुत्र के समीप ही वह ! राष्ट्र था ? कुमारगुप्त-तुम भी बालि की सेना मे मे बचे हुये हो ! धातुसेन–परम भट्टारक की जय हो ! बालि की सेना न थी, और वह युद्ध न था। जब उसमें लड्डू खाने वाले सुग्रीव निकल पड़े, तब फिर- कुमारगुप्त-क्यों? धातुसेन-उनकी बड़ी सुन्दर ग्रीवा मे लड्डू अत्यन्त सुशोभित होता था, और सबसे बड़ी बात तो थी बालि के लिये-उनकी तारा का मन्त्रित्व । सुना है सम्राट् ! स्त्री की मन्त्रणा नड़ी अनुकूल और उपयोगी होती है, इसीलिये उन्हें राज्य की झंझटों से शीघ्र छुट्टी मिली गई। परम भट्टारक की दुहाई ! एक स्त्री को मन्त्री आप भी बना लें, बड़े-बड़े दाढ़ी मूंछवाले मन्त्रियों के बदले उसकी एकान्त मन्त्रणा कल्याण- कारिणी होगी। कुमारगुप्त-(हंसते हुए) लेकिन पृथ्वीसेन तो मानते ही नही। धातुसेन-ता मेरी सम्मति से वे ही कुछ दिनों के लिये स्त्री हो जायें; क्यों कुमारामात्यजी? पृथ्वीसेन -पर तुम तो स्त्री नहीं हो जो मैं तुम्हारी सम्मति मान लू? स्कन्दगुप्त विक्रमादित्य : ४३१