पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/४४८

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

स्कन्दगुप्त-चिन्ता क्या आर्य | अभी तो आप हैं, तब भी मैं ही सब विचारों का भार वहन करूं, अधिकार का उपयोग करूं ! वह भी किसलिए ? पर्णदत्त-किसलिये ? त्रस्त प्रजा की रक्षा के लिए, सतीत्व के सम्मान के लिए, देवता, ब्राह्मण और गौ की मर्यादा में विश्वास के लिए, आतंक से प्रकृति को आश्वासन देने के लिए आपको अपने अधिकारों का उपयोग करना होगा। युवराज ! इसीलिए मैंने कहा था कि आप अपने अधिकारो के प्रति उदासीन है, जिसकी मुझे बड़ी चिन्ता है। गुप्त-साम्राज्य के भावी शासक को अपने उत्तरदायित्व का ध्यान नही ! स्कन्दगुप्त-सेनापते ! प्रकृतिस्थ होइये ? परम भट्टारक महाराजाधिराज अश्वमेध-पराक्रम श्रीकुमारगुप्त महेन्द्रादित्य के सुशासित राज्य की सुपालित प्रजा को डरने का कारण नही है। गुप्त-सेना की मर्यादा की रक्षा के लिए पर्णदत्त सदृश महावीर अभी प्रस्तुत हैं। पर्णदत्त-राष्ट्रनीति, दार्शनिकता और कल्पना का लोक नही है। इस कठोर प्रत्यक्षवाद की समस्या वड़ी कठिन होती है । गुप्त-साम्राज्य की उत्तरोत्तर वृद्धि के साथ उमका दायित्व भी बढ गया है, पर उस बोझ को उठाने के लिये गुप्तकुल के शासक प्रस्तुत नही, क्योकि साम्राज्य-लक्ष्मी को वे अब अनायास और अवश्य अपनी शरण आनेवाली वस्तु समझने लगे है । स्कन्दगुप्त-आर्य ! इतना व्यंग न कीजिये, इसके कुछ प्रमाण भी है ? पर्णदत्त -प्रमाण अभी खोजना है ? आंधी आने के पहले आकाश जिस तरह स्तम्भित होता रहता है, बिजली गिरने से पूर्व जिस प्रकार नील कादम्बिनी का मनोहर आवरण महाशून्य पर चढ जाता है, क्या वैसी ही दशा गुप्त-साम्राज्य की नही है ? स्कन्दगुप्त -क्या पुष्यमित्रो के युद्ध को देखकर वृद्ध सेनापति चकित हो रहे हैं ? (हंसता है) पर्णदत्त-युवराज ! व्यंग न कीजिये । केवल पुष्यमित्रो के युद्ध से ही इतिश्री न समझिये, म्लेच्छो के भयानक आक्रमण के लिए भी प्रस्तुत रहना चाहिये । चरों ने आज ही कहा है कि कपिशा को श्वेत हूणो ने पदाक्रान्त कर लिया ! तिस पर भी युवराज पूछते है कि अधिकारो का उपयोग किस लिए। यही किस लिए प्रत्यक्ष प्रमाण है कि गुप्तकुल के शासक इस साम्राज्य को 'गले-पड़ी' वस्तु सनझने लगे है । [चक्रपालित का प्रवेश] चक्रपालित-(देखकर) अरे, युवराज भी यही है ! युवराज की जय हो । स्कन्दगुप्त-आओ चक्र ! आर्य पर्णदत्त ने मुझे घबरा दिया है। चक्रपालित-पिताजी ! प्रणाम । कैसी बात है ? ४२८ प्रसाद वाङ्मय