पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/४४३

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'अग्निहोत्र' रूप कर्म (यज्ञो वै कर्म-शतपथ) और अतीत संस्कार से आतत स्मृति की सन्धि से मनु की चिन्ता में-'नव हो जगी अनादि वासना' । वासना, संस्कार, स्मृति और कल्पना के सन्दर्भ में ईश्वर प्रत्यभिज्ञा की पह कारिका-कादाचित्कावभासे या पूर्वाभासादि योजना, संस्कारात्कल्पना प्रोक्ता सापिभिन्नावभासिनी (१-६-६)--प्रसंग को और स्पष्ट करती है। इसी कारिका की विमर्शिनी टीका में महामाहेश्वर अभिनवगुप्त का प्रश्न है-'भिन्ने हि कथमनुसन्धानम् ?' फिर ममाधान में कहते है--सस्कारात्-प्राक्तनानुभवकृत वासना प्रबोधज स्मृतिवशात्' । इस वासना और वासना प्रबोधज स्मृति' पर प्रसाद-वाड्मय के कृती का ध्यान कहीं भी छूटता नही चाहे काव्य हो नाटक हो किवा गद्य क्योकि अतीत से वर्तमान में अनेकघा रूपान्तरित यह ऐसी मणि मेखला है जिसमे मनन की वह असाधारण अवस्था भी आती है जहां चेतना के मूल विन्दु आत्मा की स्थिति अभेदतः अनायास ही प्रत्यक्ष हो जाती है। कालिदास और शेक्सपीयर के चरित्रो की तुलना करते इस वासना को ही कसौटी मान कर वे कहते है-'शेक्सपीयर के पात्र बलवती वासनाओं के मानव रूप है, सो भी अति चित्रण है। कालिदास के पात्र मनुप्य है, उनकी वासनाओं का उन्ही मे अवसान है ।' यदि उन चरित्रों की वासना का उसी देहायतन मे अवसान न हो पाया तो उसके अवसान के लिए अन्य देहधारी चरित्रो की सृष्टि प्रसाद-वाङ्मय के रूपकों की अपनी विशेषता है। उदाहरणार्थ -साम्राज्यवासना वा आदि और अन्त अवलोक्य होगा। इसका इन्द्र से व्युत्थान और स्कन्दगुप्त मे अवसान प्रत्यक्ष है। एतदर्थ मध्यवर्ती चन्द्रगुप्त के चरित्र मे भी साम्राज्यवासना की अवसान भूमि नही मिली। जैसे यात्रा मे अश्व-परिवर्तन करते यात्री गन्तव्य मे ओर बढता है वैसे ही प्रसाद-वाङ्मय के रूपकों मे चरित्रगत वासनाओ की अवसातोन्मुखी-यात्रा देखी जा सकती है । (सम्पादक) 1. The memory of nature is infallibly accurate and inexhaustably minute A time will come as certainly as the precession of the equinoxes, when the literary method of historical research will be laid aside as out of date, in the case of all original work. A P. Sinnett (The story of Atlantis, Page, viii ) २. विजेन्द्रलाल राय कृत 'कालिदास और भवभूति' के अनुवाद मे पृष्ठ संख्या २२ पर हाशिये की टिप्पणी। स्कन्दगुप्त विक्रमादित्य : ४२३