पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/४४१

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स्कन्दगुप्त विक्रमादित्य पूज्य पिताश्री ने 'राज्यश्री' को अपना पहला ऐतिहासिक रूपक बताया है। तदनन्तर 'विशाख', 'अजातशत्रु', 'जनमेजय का नाग यज्ञ' के पश्चात यह 'स्कन्दगुप्त विक्रमादित्य' उनका पांचवां ऐतिहासिक रूपक है । वे इससे सहमत नहीं थे कि इतिहास केवल अकल्पित-आकस्मिक घटनाओं की एक संहति है : अजातशत्रु की भूमिका (कथावस्तु) मे इस प्रसंग को स्पष्ट करते- अपने रूपकों की तत्त्व-दिशा उन्होंने दिखाई है- "मानव समाज की कल्पना का भण्डार अक्षय है क्योकि वह इच्छा शक्ति का विकाम है। इन कल्पनाओं का, इच्छाओ का मूल-सूत्र बहुत ही सूक्ष्म और अपरिस्फुट होता है। जब वह इच्छा-शक्ति किसी व्यक्ति या जाति मे केन्द्रीभूत होकर अपना सफल या विकसित रूप धारण करती है तभी इतिहास की सृष्टि होती है। विश्व में जब तक कल्पना इयत्ता को नहीं प्राप्त होती तब तक वह रूप परिवर्तित करती पुनरावृत्ति करती हो जाती है। समाज की अभिलाषा अनन्त स्रोत वाली है। पूर्व कल्पना के पूर्ण होते-होते एक नई कल्पना उसका विरोध करने लगती है। और, पूर्व कल्पना कुछ काल तक ठहर कर फिर होने के लिए अपना क्षेत्र प्रस्तुत करती है । इधर इतिहास का नवीन अध्याय खुलने लगता है। मानव समाज के इतिहास का इसी प्रकार संकलन होता है। इतिहास मे घटनाओ की प्रायः पुनरावृत्ति होती देखी जाती है। इसका तात्पर्य यह नहीं कि उसमे कोई नई घटना होती ही नही, किन्तु असाधारण नई घटना भी भविष्य में फिर होने की आशा रखती है।" कामायनी के संघर्ष सर्ग में मनुष्य की तात्विक परिभाषा इस प्रकार की गई है-'यह मनुष्य आकार चेतना का है विकसित'। तब, इस जड़ जगत और उसके