पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/४३४

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7 विवेक-नहीं मां, जा बड़े-बूढ़ों को बुला ला। बालिका-परन्तु- विवेक-हाय रे पाप ! इन निरीह बालकों में भी विश्वास का अभाव हो गया है। विश्वास करो मां, बुला लो। [बालिका जाती है, चार वृद्ध और युवक आते हैं] विवेक - मैं उसी गापित देश का हूँ, जिसमें मोने की ज्वाला धधक उठी है, मदिरा को वन्या वाढ पर है। क्या मुझ पर विश्वास करोगे? युवक कहो, तुम्हारा प्रयोजन सुन विवेक हमारे और तुम्हारे देश की मीमा में एक नया राज्य स्थापित हो गया है। यह हमारे देश के विद्रोहियों का एक घृणित संगठन है। उसने अत्याचार का ठेका ले लिया है। उसमे क्या हम तुम दोनों बचना चाहते है ? युवक -परन्तु उपाय क्या है विवेक- --हम लोगों को भाई ममझकर मित्र-भाव की स्थापना करो, और इनके अत्याचारों से रक्षा करो। हम परस्पर दूसरे के सहायक हों। युवक - किम प्रकार ? विवेक आज न्यायालय में विचार होने वाला है, और तुम्हारे देश के जो दो बन्दी हए है, उन्हें दण्ड मिलेगा। हम लोगों में से बहुतेरे उसके विरुद्ध है, यदि तुम लोग भी हमारी महायता करो, तो इस भीषण आतंक से सबकी रक्षा हो । युवक हम लाग ठीक समय पर पहुंचेगे। परन्तु वहाँ तक जाने कैमे पावंगे ? विवक-हमारी सेवा मे जितने आहत अच्छे हो चुके है उन्ही लोगों के दल के साथ । और, इस अच्छे कर्म के लिए बहुत सहायक मिलेगे। युवक-अच्छा, तो हम जाते है। निवेक-तुम्हारा कल्याण हो। [युवक और उसके साथी जाते हैं, दूसरी और से वही बालिका दौड़ती हुई आती है, पीछे दो उन्मन मद्यप है] बालिका-दोहाई है, बचाओ ! बचाओ । मद्यप सैनिक -मुन्दरी, दौड़-धूप करने पर तो प्रेम का आनन्द नही रहता। माना कि यह भी एक भाव है; पर वह मुझे रुचिकर नही। सुन तो लो- (पकड़ता है) बालिका अरे, तुम क्या मनुष्यता को भी मदिरा के साथ घोलकर पी गये हो ! सैनिक-मदिरा के नाम से वही तो पीता हूँ। विवेक-(आगे बढ़कर) क्यो, तुम वीर मैनिक हो न ? ४१४: प्रसाद वाङ्मय