पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/४२४

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सन्देश, नये-नये उद्देश्य, नयी-नधी संस्थाओं का प्रचार, सब कुछ सोना और मदिरा के बल से हो रहा है। हम जागते में स्वप्न देख रहे हैं । लीला-ओह ! (जाती है) [दो सैनिक एक स्त्री को बाँधकर लाते हैं] कामना-यह कौन है ? सैनिक-युद्ध में यह बन्दिनी बनायी गयी है । कामना-इसका अपराध ? सैनिक-सेनापति के आने पर वह स्वयं निवेदन करेंगे। हम लोगों को आज्ञा हो तो जायें, युद्ध समाप्त होने के समीप है। कामना-जाओ। [दोनों जाते हैं] स्त्री-तुम रानी हो ? कामना-हाँ। स्त्री-रानी बनने की साध क्यों हुई ? क्या आँखें इतनी रक्तधारा देखने को प्यासी थी? क्या इतनी भीषणता के साथ तुम्हारा ही जयघोष किया जाता है ? कामना-मेरे दुर्भाग्य से। स्त्री-और तुम चुपचाप देखती हो ? कामना-तुम बन्दी हो, चुप रहो। [रक्ताक्त-कलेवर विजयी विलास का प्रवेश] विलास-जय ! रानी की जय ! कामना-क्या शत्रु भाग गये ? विलास-हां रानी ! कामना-अच्छा विलास, बैठो, विश्राम करो। विलास-(देखकर) आहा। यह अभी यही है । इसको मेरे पटमण्डप में न ले जाकर यहां किसने छोड़ दिया है ? कामना-वह सैनिक इसे यहीं पकड़ लाया। परन्तु कहो विलास, इसे क्यों पकड़ा ? विलास-तुमको रानी, राज्य करने से काम, इन पचड़ों में क्यों पड़ती हो? युद्ध में स्त्री और स्वर्ण, यही तो लूट के उपहार मिलते हैं। विजपी के लिए यही प्रसन्नता है । इसे मेरे यहाँ भेज दो। कामना--विलाम, तुमको क्या हो गया है ? मैं रानी हूँ, तुम्हारी शैय्या सजाने की दासी नही। ४०४ : प्रसाद वाङ्मय