पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/४२२

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मानूंगी। जब इस विदेशी विलास को तुम्हारे साथ देखती हूँ, तब मैं क्रोध से काप उठती हूँ। कुछ वश नही चलता, इससे रोने लगती हूँ। बस, और क्या कहूं ! कामना-प्यारी, तू उस बात को न सुना, उसे बधिरता के धने परदे में छिपा रहने दे। मेरे जीवन के निकटतम रहस्य को अमावस्या से भी काली चादर में छिपा रख । मैं रोना चाहती हूँ; पर रो नही सकती। हां - दूसरी-अच्छा, मै कुछ गाऊँ, जिससे मन बहले। कामना-सखी- [गान] जाओ, सखी, तुम जी न जलाओ, हमें न सताओ जी। पहली-तुम व्यर्थ रही बकती, कामना-तुम जान नही सकती, मन की कथा है कहने की नही, दूसरी --मत बात बनाओ जी। पहली-समझोगी नही मजनी, दूसरो-भव प्रेममयी रजनी, भर-नैन सुध छवि चाख गयी अब क्या गमझाओ जी। [विलास का प्रवेश] विलास रानी! कामना -(सम्हल कर) क्यो विलास ! यह नगर कैमा वमाया जा रहा है ? विलास - आज भयानक युद्ध होगा। कल बताऊँगा। कामना- अच्छा खेल होगा, सभ्यता का तांडव नृत्य होगा। वीरता की तृष्णा बुझेगी, और हाथ लगेगा मोना । विलास व्यंग न करो रानी! विनोद आज मदिरा में उन्मत्त है; कोई सेनापति नही है। कामना-तो मैं चलं ? विलास-मैं तो पूछ रहा हूँ। कामना-अच्छी बात है, आज तुम्ही सेनापति का काम करो। लीला और लालसा भी रणक्षेत्र में साथ जायंगी कि नही ? [नेपथ्य में कोलाहल] विलास--(बिगड़कर) स्त्रियों के पास और होता क्या है। ४०२: प्रसाद वाङ्मय