जयचंद-"हाय हाय ! मुझसे घोर दुष्कर्म हुआ।" (आकाश से)-"और तुझे घोर प्रायश्चित भी करना होगा।" जयचंद-"हाथ जोड़कर । तुम सच में कोई देवदूत हो । कृपाकर यह बतलाओ कि इसका क्या प्रायश्चित्त है । मैं उसे अवश्य करूंगा।" (आकाश से)-"जामातृवध के लिए शत्रुवध, और देशद्रोह के लिए आत्मवध।" [जयचंद मूच्छित होता है। एक मन्द प्रकाश के साथ पटाक्षेप] तृतीय दृश्य [राजभवन-कन्नौज] जयचंद-"मन्त्रिवर, उस छली यवन ने क्या विजित भूमि देना अस्वीकार किया ?" मंत्री-"हाँ महाराज ! वह कहता है कि यदि महाराज को फिर दिल्ली का राज्य मिल जायगा, तो उसको कई बार दिल्ली विजय करनी पड़ेगी। इसलिए, वह झंझट नही बढ़ाना चाहता।" जयचंद-"मन्त्रिवर ! क्या सारे पाप का यही परिणाम हुआ ?" मंत्री-"सो तो हुआ महाराज !" जयचंद-"नही मन्त्री महाशय, ऐसा नहीं होगा। देखो, जब दिल्लीराज ने इस पृथ्वीराज को अपना महाराज्य समर्पित किया था, उसी समय मेरे हृदय-वन में एक विषवृक्ष का बीज, बड़े विर्षले कांटे से खोद कर गाडा गया। अब उस वृक्ष को उखाड़ कर क्या उसका सुख न भोग सकूँगा ?" मंत्री -"महाराज के हाथों भारत-दुर्भाग्य ने मब कुछ कराया। क्या आश्चर्य है कि यह भी हो जाय।" जयचंद -(खड़ा होकर) "नही, नही ! खड्गबल से सहायता मिलेगी। जयचंद निरा कायर नहीं है। इस थके हुए लुटेरे को, जिसका बल क्षीण हो गया है, विजय कर लेना कौन-सी बड़ी बात है।" मंत्री -"आप जो न करें सो थोडा है। मैं आपको सलाह क्या दे सकता हूँ, पर इतना अवश्य कहूंगा कि आप भी सन्नद्ध रहिये । यवन भी इसी ध्यान में है कि अभी पृथ्वीराज अधमरा है।" जयचंद-"मन्त्री महाशय, सैन्य सुसज्जित रखने के लिये सेनापति के पास आज्ञापत्र भेद दो। किन्तु फिर युद्ध""अच्छा। (चमक उठता है) हैं, यह क्या ! वह दूर कैसा धुंधला उजाला हो रहा है ? अरे""इसमें कोई आकृति, हाँ हाँ वही तो है, संयोगिता..." मंत्री-"महाराज ! क्या आपको भ्रम हो रहा है ? कहां ध्यान है।" २६: प्रसाद वाङ्मय
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