पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/४१७

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तृतीय अङ्क प्रथम दृश्य [नवीन नगर के एक भाग में आचार्य दम्भ का घर, क्रूर, दुर्वृत्त, प्रमदा और दम्भ] दम्भ-निर्जन प्रान्तों मे गन्दे झोपडे | बिना प्रमोद की राते। दिन भर कडी धूप मे परिश्रम करने मृतको की मी अवस्था में पड रहना । मरमति-विहीन, धर्म- विहीन जीवन | तुम लोगो का मन तो अवश्य ऊब गया होगा। प्रमदा--आचार्य-कही गदिरा की गोष्ठी के उपयुक्त स्थान नही । मंकेत-गृहों का भी अभाव ! उजडे कुज, खुले मैदान ओर जंगल, शीन, 7 तथा ग्रीष्म की सुविधा का कोई मावन नही। कोई भी विलाम-शील प्राणी कैसे सुख पावे । दम्भ---इमीलिये तो नवीन नगर-निर्माण की मेरी योजना मफल हो चली है। झाड-के-झुण्ड लोग इममे आकर वसने लगे है । जैसे मधुमकिवण आने मधु की रक्षा के लिए मना न करी है, वैमी ग नगर । धर्म और मस्तुति की रक्षा होगी। नवीन विचारो का यह केन्द्र होगा। धर्म-प्रचार म यहा से बनी सहायता मिलेगी। दुर्वृत्त 1--बडा सुन्दर भविष्य है। गुन्दर महत, मार्वजनिक भोजनालय, संगीत- गृह और मदिरा-मदिर तो है ही, उनमे धर्म-भावनाओं की भव्यता वढा प्रभाव उत्पन्न कर रही है। देहानी अगन्ध मनु यो को ये विशेष रूप मे आवर्षिन करते है। इससे उनके मानसिक विकास मेवी महायता मिलेगी। कर--यह तो ठीक है । यहाँ पर अधिक-से-अधिक मोने की मानश्यकता होगी। यहाँ व्यय की प्रचरता निन्य अभाव ना मृगन य.रेगी। और अ- स्थानो की च्छी वस्तु यहाँ एकत्र करने के लिये नये उद्योग-धन निकालने होगे। दम्भ-स्वर्ण के आश्रय ने ही सस्कृति और धर्म वढ माते है। उपाय जैसे भी हो, उगे सोना इकट्ठा कगे, फिर उसका गदपयोग करो हम प्रायश्चित्त कर लेगे। प्रमदा-- स्त्रियाँ पुरषो की दासता में जम गयी है, क्योंकि उन्हे ही म्पर्ण पी अधिक आवश्यकता है। आभूषण उन्ही के लिये है। मैने स्त्रियो । स्वतन्त्रता का मन्दिर खोल दिया है। यहां वे नवीन वेश-भूपा गे अद्भत लावण्य का सृजन करेगी। पुरुष स्वयं अव उनके अनुगत होगे। मे वैवाहिक जीवन को घृणा की दृष्टि से देखती हूँ। उन्हे धर्म-भवनो की देवदामी बनाऊँगी। दुर्वृत्त-और यहाँ कौन उमे अच्छा समझाा है। पर मैंने कुछ दूसरा ही उपाय सोच लिया है। कामना: ३९७