जयचंद-(गर्व से) "अरे तू है कौन, जो व्यर्थ बक-बक करता है। वह, जब तक कुमारी रही, फूलों में पली, जब युवती हुई, योग्य पति को बरण किया, इससे बढ़ कर स्त्री को कौन सुख मिलेगा ?" (आकाश से)-"नराधम ! अब उसकी क्या दशा है ?" जयचंद-"जो आर्य ललनाओं की होती है। सुन चुकी होगी, तो मर गई होगी, नही तो सुनते ही प्राणत्याग करने का उद्योग करेगी।" (आकाश से)-'दुष्ट इसी चिता की धूलि में उस फूल का भी पराग मिला हुआ है, जिसे तूने बड़े स्नेह से अपने हाथ में रखा था।" जयचंद-"क्या कहा ?" (आकाश से)-“यही कि इसी चिता की राख में संयोगिता की राख भी मिली है, जिसे तू कुचलेगा।" जयचंद-(करुणाई स्वर से) "क्या संयोगिता सती हो गयी ?" (आकाश से)-"हाँ, तूने ही तो अपने हाथ से उसके सती होने की तैयारी की थी।" जयचंद "क्षत्राणी थी। यही ठीक भी था। पर हाय संयोगिता ! तू अभी बिना कली की आशालता थी, यही दुःख है-(मोह) (आकाश से)-“अव क्यों रोने लगा ? कुचल, उस राख को कुचल, अपनी छाती ठंढी कर !" जयचंद-(आकाश की ओर देखकर) "हाय, संयोगिते ! मैंने तुझे कुछ भी मुख न दिया ! अपने स्वार्थ के लिए, अपनी जिघांसावृत्ति की तृप्ति के लिए, अपने पाले हुए हरिणशावक पर ही शर-सन्धान किया।" (आकाश से)-"अभी क्या रोता है, अभी तो मुझे बहुत रोना पड़ेगा। तूही नहीं, तेरे इस कार्य से सारे भारतवासियों को रोना पड़ेगा और उनके घृणा-प्रकाश करने पर तेरी आत्मा सदा रोती रहेगी। पहले, अपने लगाये हुए विष-वृक्ष के फल को चख, फिर तू उसी को लकड़ी से जलाया जायगा कि नहीं, इसको खोज पीछे करना। अपनी प्रतिहिंसा से तृम हो जा। इस राख को, जिसमे संयोगिता और पृथ्वीराज की राख मिली हुई है, अपने पवित्र चरणों से पवित्र तो कर दे।" जयचंद-"भाई तुम कौन हो, क्यों मुझे सता रहे हो!" (आकाश से)-"अभी तो तू यहां पिशाचों की क्रीड़ा देखने आया था और मैंने भी सोच रक्खा था कि तू भी किरा. नरपिशाच से कम नहीं । देखें किसकी क्रीड़ा अच्छी होती है। पृथ्वीराज की खोपड़ी एक पिशाच के हाथ में दे और संयो- गिता की तू लेले । दोनों लड़ा कर देख, कौन फूटती है।" प्रायभित्त:-२५
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