पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/४०४

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सन्तोष-छिप कर बातें करना, कानों में मन्त्रणा करना, छूरों की चमक से आँखों मे त्रास उत्पन्न करना, वीरता नाम के किसी अद्भुत पदार्थ की ओर अन्धे होकर दौड़ना युवको का कर्तव्य हो रहा है। वे शिकार और जुआ, मदिरा और विलासिता के दास होकर गर्व से छाती फुलाये घूमते है। हम धीरे-धीरे सभ्य हो रहे है। विवेक-सब बूढे मूर्ख और पुरानी लकीर पीटने वाले कहे जाते है । सन्तोष--एक-एक पात्र मदिरा के लिये लालायित होकर ये दासता का बोझ वहन करते है-हृदय मे व्याकुलता, मस्तिष्क मे पाप-कल्पना भरी है। विवेक-मोने का ढेर-छल और प्रवञ्चना से एकत्र करके-थोड़े-से ऐश्वर्यशाली मनुष्य द्वीप-भर को दास बनाये हुये है। और, आशा मे, कल स्वयं भी ऐश्वर्यवान होने की अभिलाषा मे बचे हुए हुए सीधे सरल व्यक्ति भी पतित होते जा रहे है । सन्तोष-हत्या और पाप की दौड हो रही है, और धर्म की धूम है। विवेक-चलो भाई, चले, अब उपासना-गृह मे शासन-सभा होगी वही उन हत्यारो का विचार भी होने वाला है । (देखता हुआ) उधर देखो, रानी उपासना- गृह मे जा रही है ! सन्तोष--भला यह रानी क्या वस्तु है ? विवेक-मदिग से ढुलकती हुई, वैभव के बोझ से दबी हुई महत्वाकाक्षा की तृष्णा से प्यासी, अभिमान की मिट्टी की मूत्ति । सन्तोष-परन्तु हे प्रभावशालिनी। भला हम लोग तो यह सब नही जानते थे। यह कहाँ से""" विवेक-वही विदेशी, इन्द्रजाली युवक विलास । उसकी तीक्ष्ण आँखो में कौशल की लहर उठती है। मुमकराहट मे शीतल ज्वाला और बातो मे भ्रम की बहिया है। सन्तोष -परन्तु हम सब जानते हुए भी अजान हो रहे है । विवेक-कोई उपाय नही । (जाता है) [विलास का प्रवेश] विलास-(स्वगत) यह बडा रमणीय देश है ! भोले-भाले प्राणी थे, इनमें जिन भावों का प्रचार हुआ, वह उपयुक्त ही था। परन्तु सव करके क्या किया? अपने शाप-ग्रस्त और संघर्षपूर्ण देश की अत्याचार-ज्वाला से दग्ध होकर निकला। यहाँ शीतल छाया मिली, मैने क्या किया ? सन्तोष-वही ज्वाला यहाँ भी फैला दी, यहाँ भी नवीन पापों की सृष्टि हुई। अब सब दीपवासी और उनके साथ तुम भी उमी मानसिक नीचता, पराधीनता, - ३८४ : प्रसाद वाङ्मय