पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/३९३

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बनाकर छोड़ेगी। हैं ! नरक और स्वर्ग ! कहाँ है ? ये क्यों मेरे हृदय में घुसे पड़े हैं ? काल्पनिक अत्यन्त उत्तमता, सुख-भोग की अनन्त कामना, स्वर्गीय इन्द्र-धनुष बनकर सामने आ गयी है, जिसने वास्तविक जीवन के लिये इस पृथ्वी की दबी हुई ज्वालामुखियों का मुख खोल दिया है। हमारे फूलों के द्वीप के बच्चो ! रोओगे इन कोमल फूलों के लिये, इन शीतल झरनो के लिये। पिता के दुलारे पुत्रो ! तुम अपराधी के समान बेत से कांपोगे। तुम गोद मे नही जाने पाओगे। हा ! मैं क्या करूं-कहाँ जाऊँ ? (बड़बड़ाता हुआ जाता है) दृश्या न्त र षष्ठ दृश्य [कामना का नवीन मन्दिर, कामना और विलास] विलास-बहुन-से लोग पेया मांगते है कामना ! कामना-तो कैसे बनेगी? दिगा लीला स्वर्ण-पट्ट के लिये अत्यन्त उत्सुक है। कामना-उसे तो देना ही होगा। विलास-स्वर्ण तो मैंने एकत्र कर लिया है, अब उसे बनाना है। कामना-फिर शीघ्रता करो। विलास -जब तक तुम रानी नही हो जाती, तब तक दूमरे को स्वर्ण-पट्ट नही पहनाऊंगा। केवल उपासना मे प्रधान बनने मे काम न चलेगा परन्तु रानी बनने मे अभी देर है, क्योकि अपराध अभी प्रकट नही है। उमका बीज सब के हृदयों में है। कामना-फिर क्या होना चाहिये ? विलास-आज सब को पिलाऊँगा । कुछ स्त्रियां भी रहेगी न कामना-दयों नही। विलास-कितनी देर मे सब एकत्र होगे कामना-आते ही होगे। मुझे तो दिखलाओ, तुमने क्या बनाया है, और कैसे ? ? बनाया?' विलास-देखो, परन्तु किसी से कहना मत । [कामना आश्चर्य से देखती है, पर्दा हटाकर शराब की भट्ठी और सुनार की धौंकनी दिखलाता है, गलाया हुआ बहुत-सा सोना रक्खा है, मञ्जूषा में से एक कंकण निकाल कर कामना को दिखाता है] कामना : ३७३