पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/३९१

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विलास-अनर्थ न करो, ईश्वर का कोप होगा। [विलास के संकेत करने पर कामना अग्नि में राल डालती है] विलास-ईश्वर है, और वह सब के कर्म देखता है। अच्छे कार्यों का पारितोषिक और अपराधों का दण्ड देता है। वह न्याय करता है; अच्छे को अच्छा और बुरे को बुरा ! विवेक-परन्तु युवक, हम लोग आज तक उसे पिता समझते थे और हम लोग कोई अपराध नहीं करते। करते हैं केवल खेल। खेल का कोई दण्ड नहीं। यह न्याय और अन्याय क्या ? अपराध और अच्छे कर्म क्या है, हम लोग नही जानते । हम खेलते हैं, और खेल में एक दूसरे के सहायक है, इसमे न्याय का कोई कार्य नहीं नहीं। पिता अपने बच्चों का खेल देखता है, फिर कोप क्यों ? विलास-तुम्हारी ज्ञान-सीमा संकुचित होने के कारण यह भ्रम है। तुम लोग पुण्य भी करते हो, और पाप भी। विवेक-पुण्य क्या? विलाय-दूसरों की सहायता करना इत्यादि। पाप है दूसरों को कष्ट देना, जो निषिद्ध है। विवेक-परन्तु निषेध तो हमारे यहां कोई वस्तु नही है। हम वही करते हैं, जो जानते हैं, और जो जानते हैं वह सब हमारे लिये अच्छी बात है केवल निषेध का घोर नाद करके तुम पाप क्यों प्रचारित कर रहे हो ? वह हमारे लिए अज्ञात है । तुम इस ज्ञान को अपने लिए सुरक्षित रक्खो । यहाँ । कामना-दिव्य पुरुष से केवल शिक्षा ग्रहण करनी चाहिये । विनोद हम आपके आज्ञाकारी है। आपके नेतृत्व-काल में अपूर्व वस्तु देखने में आयी, और कभी न सुनी हुई बातें जानी गर्य। आप धन्य हैं ! एक हम लोग भी स्वीकार ही करेगे। तो अब सब लोग जायें ? विनोद-ब्याह का उपहार ग्रहण कर लीजिये। कामना-वह ईश्वर की प्रसन्नता है। आप लोगों को उसे लेकर जाना चाहिए। [विनोद और लीला सब को मदिरा पिलाते है] कामना है न यह उसकी प्रसन्नता ? दो-चार-अवश्थ, यह तो बड़ी अच्छी पेया है। [सब मोह में शिथिल होते है] -ईश्वर से डरना चाहिये, सदैव सत्कर्म""" एक-नही तो वह इसी ज्वाला के समान अपने क्रोध को धधका देगा। कामना : ३७१