पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/३८६

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

वन-लक्ष्मी-मै वन-लक्ष्मी हूँ। लीला-क्यों आयी हो? वन-लक्ष्मी-इस द्वीप के निवासियों में जब ब्याह होता है, तब मै आशीर्वाद देने आती हूँ। परन्तु किसी के सामने नही। लीला-फिर मेरे लिए ऐसी विशेषता क्यों ? वन-लक्ष्मी-अभिशाप देने के लिए। लीला-हम 'तारा की संतान' है। हमें किसी के अभिशाप से क्या सम्बन्ध ! और मैने किया ही क्या है जो तुम अभिशाप कह कर चिल्लाती हो। इस द्वीप में आज तक किसी को अभिशाप नही मिला, तो मुझे ही क्यो मिले ? वन-लक्ष्मी- मैने भूल की। अभिशाप तो तुम स्वयं इस द्वीप को दे रही हो। लीला--जो बात मै समझती नही, उसी के लिये क्यों मुझे वन-लक्ष्मी-जो वस्तु कामना को अकस्मात मिली है, उसी के लिए तुम ईर्ष्या कर रही हो, वैमी ही तुम भी चाहती हो। लीला-तो ऐसा चाहना क्या कोई अभिशाप, ईर्ष्या या और क्या-क्या तुम कह रही हो, वही है ? वन-लक्ष्मी -आज तक इस द्वीप के लोग 'यथा-लाभ-सन्तुष्ट' रहते थे, कोई किसी का मत्सर नही करता था । परन्तु इस विष का-" लीला -बस करो, मै तुम्हारे अभिशाप, ईा और विष को नही समझ सकी! यदि मै किसी अच्छी वस्तु को प्राप्त करने की चेष्टा करूं, तो उसकी गिनती तुम अपने इन्ही शब्दो मे करोगी, जिन्हे किसी ने सुना नही था। अभिशाप, मत्सर, ईर्ष्या और विष! वन-लक्ष्मी-अच्छी वस्तु तो उतनी ही है, जितने की स्वाभाविक आवश्यकता है। तुम क्यों व्यर्थ अभावो की सृष्टि करके जीवन जटिल बना रही हो ? जिस प्रकार ज्वालामुखियाँ पृथ्वी के नीचे दबा रक्खी गयी है, और शीतल स्रोत पृथ्वी के वक्षस्थल पर बहा दिये गये है, उसी प्रकार ये सब अभाव 'तारा की सन्तानो' के कल्याण के लिए गाड दिये गये है। यह ज्वाला सोने के रूप मे सब के हाथो मे खेलती और मदिरा के शीतल आवरण से कलेजे मे उतर जाती है । लीला-मदिरा ! क्या कहा ? वन-लक्ष्मी-हां-हाँ, मदिरा, जो तुम्हारे उस पात्र मे रक्खी है। (पात्र की ओर संकेत करती है) लीला- --क्या इसे कहती हो' (पात्र उठा लेती है) इमे तो सखी कामना ने ब्याह के उपलक्ष मे भेजा है। और सोना क्या ? वन-लक्ष्मी-वही, जिसके लिए लालायित हो। ? ३६६ : प्रसाद वाङ्मय