पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/३८५

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परन्तु मेरे कारण शीघ्र इसको अपने पद से हटना होगा। तो, जब तक कामना इस पद पर है, उसी बीच में अपना काम कर लेना होगा। [दूर पर एक स्त्री की छाया दीख पड़ती है] छाया-मूर्ख ! अपने देश की दरिद्रता से, विताड़ित और अपने कुकर्मों से निर्वासित साहसी ! तू राजा बनना चाहता है ? तो स्मरण रख, तुझे इस जाति को अपराधी बनाना होगी। जो जाति अपराध और पापों से पतित नहीं होती, वह विदेशी तो क्या, किसी अपने मजातीय शासक की भी आज्ञाओं का बोझ वहन नहीं करती। और, समझ ले कि बिना स्वर्ण और मदिरा का प्रचार किये तू इस पवित्र और भोलीभाली जाति को पतित नहीं बना सकता। विलास-कौन, मेरी महात्वाकांक्षा ! तुझे धन्यवाद । ठीक समय पर पहुंची। (विलास जाता है, छाया अदृश्य हो जाती हैं) [एक ओर से कामना, दूसरी ओर से विनोद का प्रवेश] कामना-विनोद ! तुम इधर लीला से मिले थे? वह तुम्हें एक दिन खोज रही थी विनोद-सन्तोष के कारण मैं उससे नहीं मिलता। आज उसका ब्याह होने वाला था न! कामना--वह सन्तोष से ब्याह न करेगी ! चलो, फूलों का मुकुट पहनाकर तुम्हें ले चलूं। विनोद-मैं ? कामना-हाँ ! दृश्या न्त र चतुर्थ दृश्य [लीला अपने कुटीर के पुष्पमण्डप में] लीला [--आज मिलन-रात्रि है । आज दो अधूरे मिलेगे, एक पूरा होगा। मधुर जीवन यौत को सन्तोष की शीतल छाया में बहा ले जाना आज से हमारा कर्तव्य होना चाहिये। परन्तु मुझे वैसी आशा नही। मेरा हृदय व्याकुल है, चंचल है, लालायित है, मेरा सब कुछ अपूर्ण है केवल उसी चमकीली वस्तु के लिये। मेरी सखी कामना ! आह मुझे भी एक वैसी ही मिलनी चाहिये । [वन-लक्ष्मी का प्रवेश] लीला-तुम कौन हो? कामना : ३६५