पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/३७८

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झुका लेते तीसरी-प्यारी कामना, तू क्यों नहीं घर चलती ? पहली -काम जो करना होगा ! (संभल कर) अच्छा कामना, जब तक तेरा मन ठीक नहीं है, तेरा काम में कर दिया करूंगी। दूसरी-तेरी कपास मैं ओट दिया करूंगी। तीसरी-सूत मैं कात दियां करूंगी। पहली-बुनना और पीने का जल भरना इत्यादि मैं कर दूंगी। तू अपना मन स्वस्थ कर चित्त को चैन दे। कामना तेरी-सी लड़की तो इस द्वीप-भर में कोई नहीं है। कामना-क्या मैं रोगी हूँ जो तुम लोग ऐसा कह रही हो? मैं किसी का उपकार नहीं चाहती । तुम सब जाओ, मैं थोड़ी देर में आती हूँ। [तीनों जाती हैं, कामना उठकर टहलती है] कामना-ये मुरझाये हुए फूल, उह-कलियां चुनो उन्हें गूंथो और सजाओ, तब कही पहनो। लो, इन्हें रूठने में भी देर नहीं लगती जब देखो, सिर हैं, सुगन्ध और रुचि के बदले इनमें से एक दबी हुई गर्म सांस निकलने लगती है। (हार तोड़ कर फेकती हुई और कुछ कहना चाहती है, दो पुरुषों को आते देख चुप हो जाती है, वृक्ष की ओट में चली जाती है, एक हल और दूसरा फावड़ा लिए आता है) सन्तोष-भाई, आज धूप मालूम भी नहीं हुई। विनोद-हमें तो प्यास लग रही है । अभी तो दिन भी नहीं चढ़ा। सन्तोष-थोड़ी देर छोह में बैठ जाय-बातें करें। विनोद काम तो हम लोगों का हो चुका, अब करना ही क्या है ? सन्तोष-अभी देव परिवार के लिए जो नयी भूमि तोड़ी जा रही है, उसमें सहायता के लिए चलना होगा। विनोद-अपने खेतों में बहुत अच्छी उन्नति है । अन्न बहुत बच रहेगा ! उन लोगों को आवश्यकता होगी; तो दूंगा। सन्तोष-अरे, साल में बहुत सार्वजनिक काम आ पड़ते हैं, तो उनके लिये संग्रहालय में भी तो रखना चाहिये । विनोद-हाँ जी, ठीक कहा । (समुद्र की ओर देखता है) सन्तोष-क्यों जी, इसके उस पार क्या है ? विनोद यही नहीं समझ में आता कि वह पार है या नहीं। सन्तोष-ओह ! जहाँ तक देखता हूँ, अखण्ड जलराशि । विनोद--क्यों कभी इसमें चलकर देखने की इच्छा होती है ? ३५८: प्रसाद वाङ्मय