पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/३७१

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जनमेजय-(व्यास की ओर देखकर) उठो महिषी, उठो। (उठाता है) वपुष्टमा-आर्यपुत्र ! सरमा देवी की बात माननी ही पड़ेगी। आओ बहन मणिमाला! सरमा-मणिमाला, तुम सौभाग्यवती हो। इस अवसर पर तुम्हीं प्रेम-शृंखला बनकर इन दोनों ऋद्ध जातियों को प्रेम-सूत्र मे बांध दो। शीला-बहन मणि | आज मेरी वह भविष्यवाणी सफल हुई। भला कौन जानता था कि तपोवन मे अंकुरित, केवल एक दृष्टि मे वद्धित तथा पल्लवित क्षुद्र प्रेमांकुर एक दिन इतना महान् फल देगा ! [रानी मणिमाला के हाथ बन्धन-मुक्त करके जनमेजय को पकड़ा देती है] वपुष्टमा- यह निर्मल कुसुम तुम्हारे समस्त सन्ताप का हरण करके मस्तक को शीतल करे। (मणिमाला लज्जित होती है) मनसा-आर्य सम्राट | मेरा समस्त विद्वेष तिरोहित हो गया। मै चाहती हूँ आज से नाग-जाति विद्वेष भूल कर आर्यों से मित्र-भाव का व्यवहार करे, और आर्यगण भी उन्हे अनार्य और अपने से बहुत दूर न माने । मैं आस्तीक के नाम पर प्रतिज्ञा करनी है कि आज से कोई नाग कभी आर्यों के प्रति विद्रोह का आचरण न करेगा। व्यास - जब राजकुल ही सम्बन्ध-सूत्र मे बँध गया, तब भिन्नता कैसी! इस प्रचण्ड वीर जाति के क्षत्रिय होने में क्या सन्देह है ! जनमेजय -ऐमा ही होगा। सब-जय, नागमाता की जय ! व्यास-ब्रह्ममण्डली, तुम भी पुरानी बातो को विस्मृत करके अपने सम्राट् को क्षमा करो! जनमेजय-भगवन् ! मेरा अपराध क्या है, यह तो मुझे विदित हो जाय । व्यास-इस षड्यन्त्र का मूल काश्यप उपयुक्त दण्ड पा चुका। यज्ञशाला के विप्लव में से भागते समय किसी नाग ने उसकी हत्या कर डाली। सम्राट, इन ब्राह्मणों ने तुम्हारा कोई अपराध नही किया है। इनकी क्षमाशीलता तो देखो ! तुमने अकारण इन्हे निर्वासन की आज्ञा दी, पर फिर भी इन्होने शाप तक न दिया। तपस्वी ब्राह्मणों, तुम लोग धन्य हो ! तुमने ब्राह्मणत्व का बहुत ही सुन्दर उदाहरण दिखलाया है। जनमेजय-भगवान् की जैसी आज्ञा (सब ब्राह्मणों से) आप लोग मुझे क्षमा कीजिये। शौनक-सम्राट्, तुम सदैव क्षम्य हो, क्योंकि तुम्हारे सुशासन से हम आरण्यक लोग शान्तिपूर्वक अपना स्वाध्याय करते है । क्या तुम्हारा एक भी अपराध हम सहन - जनमेजय का नाग यज्ञ: ३५१