पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/३३९

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और ललित कमा के सुकुमार अंक में समय नहीं व्यतीत करना चाहते ? किन्तु क्या करें! वपुष्टमा-और स्त्रियों के भाग्य में है कि अपनी अकर्मण्यता पर व्यंग सुना करें। (रोष करती है) जनमेजय-प्रिये ! ऐसा स्वर क्यों ? स्नेह में इतनी रुखाई ! (स्नेहपूर्वक हाथ पकड़ता है) [रत्नावली और प्रमदा का प्रवेश, नृत्य और गान] मधुर माधव ऋतु की रजनी, रसीली सुन कोकिल की तान । सुखी कर साजन को सजनी, छबीली छोड़ हठीला मान । प्रकृति की मदमाती यह चाल, देख ले डग भर पी के संग । डाल दे गलबाही का जाल, हृदय में भर ले प्रेम उमंग ॥ कलित है कोमल किसलय कुञ्ज, सुरभि पूरित सरोज मकरन्द । खोल दे मुख-मण्डल सुख पुञ्ज, बोल दे बजे विपञ्ची वृन्द ॥ [जनमेजय और वपुष्टमा स्नेह दृष्टि से परस्पर देखते हैं] दृश्या न्त र चतुर्थ दृश्य [प्रकोष्ठ में दामिनी] दामिनी-मेरा जी घबराने लगा है। प्रतिशोध लेने के लिए मैं कैसे भयानक स्थान में आ गयी हूँ ! क्या ये सब मनुष्य हैं ? भयानक-से-भयानक काम करने में भी इन्हे तनिक रुकावट नहीं। मुझे केवल उत्तंक से ही प्रतिशोध लेना था। यहां तो राजा और परिषद सभी के विरुद्ध एक गुप्त गड्यन्त्र चल रहा है। दुर्भाग्य कि मैं भी उसी कुकर्म में सहायक हो रही हूँ ! मनुष्य जब एक बार पा के नागपाश में फंसता है, तब वह उसी में और भी लिपटता जाता है। उसी के गाढ़े आलिंगन, भयानक परिरम्भ में सुखी होने लगता है । पापों की श्रृंखला बन जाती है। उसी के नये-नये रूपों पर आसक्त होना पड़ता है। आज मुझे क्यों इन सबसे भय लग रहा है ? क्या मैं यहां से चली जाऊँ? [मद्यप अश्वसेन का प्रवेश] अश्वसेन-हहहह ! एक, दो, तीन ! मुझे भी लोगों ने निरा मूर्ख समझ रक्खा है ! किसी प्रकार उस खाण्डव-दाह से निकल भागा, प्राण बचे। अब इस द्वन्द्व में पड़ने की आवश्यकता नहीं। हमारी जाति-ओह ! व्यर्थ की बात । यदि उसका नाश ही हुआ तो क्या ! हमारा राष्ट्र गया, जाय । मुझे तो हे स्वर्णकलशवासिनी - जनमेजय का नाग यज्ञ : ३१९