पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/३३४

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शीला--जो अपने को मनुष्यों से कुछ अधिक समझते है, उनसे मैं बहुत डरती हूँ। राज-सम्पर्क हो जाने से उन्हें विश्वास हो जाता है कि हम किसी दूसरे जगत के हैं। मणिमाला-किन्तु मैं तो समझती हूँ कि ऐसे तुच्छ विचार रखने वाले साधारण मनुष्यों से भी नीचे हैं । शीला-सखि, तुम ऐसा सोच सकती हो; क्योंकि तुम भी नागराज की कन्या हो। किन्तु मैं तो साधारण विप्र-कन्या हूँ। मणिमाला-अहा ! कैसी भोली है ! क्या कहना ! शोला-(हंसकर) राजकुमारी, सुना है, आज उनके आश्रम में फिर सम्राट जनमेजय आनेवाले हैं। मणिमाला-सखि, जब तुम सम्राट् की पुरोहितानी होगी, तब हम लोगों पर क्यों कृपा रक्खोगी! शोला-और यदि कही तुम्ही सम्राज्ञी हो जाओ, तब ? मणिमाला-(लज्जित होकर) चल पगली ! आस्तीक-(प्रवेश करके) महर्षि ने तुम लोगों बुलाया है। [सब जाते हैं] दृश्या न्त र द्वितीय दृश्य [पथ में एक ओर से दामिनी और दूसरी ओर से माणवक का प्रवेश] दामिनी-मैं किधर आ निकली ! राह भूल गयी हूँ। माणवक-आप कहीं जाना चाहती है ? दामिनी-मैं-मैं- माणवक-हां हां, आप कहां जाएंगी? दामिनी-मैं बता नही सकती-मैं जानती ही नही । माणवक-शुभे ! संमार में बहुत-से लोग ऐसे है जो जाना तो चाहते है, परन्तु कहां जाना चाहते है, इसका उन्हें कुछ भी पता नहीं। दामिनी -पर क्या आप बतला सकते हो? माणवक-(स्वगत) पह अच्छी रही ! बड़ी विचित्र स्त्री मिली। समझ में नहीं आता कि यह कोई बनी हुई मायाविनी है या सचमुच कोई भूली-भटकी है। दामिनी-आप बोलते क्यों नही ? माणवक-मुझे अधिक बाते करने का अभ्यास नही। मैं यही नहीं मानता कि आप कहाँ जाना चाहती हैं, तब कैसे और क्या बताऊँ ! मुझे- ३१४: प्रसाद वाङ्मय