पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/३२८

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

[दोनों विद्यार्थियों का प्रस्थान । वेद का प्रवेश । उन्हें देखकर त्रिविक्रम ध्यानस्थ हो जाता है] वेद--बेटा त्रिविक्रम ! [त्रिविक्रम आँखें किये हुए उच्च स्वर से मन्त्र पढ़ने लगता है] वेद-अरे त्रिविक्रम ! [वेद को खाँसी आती है । त्रिविक्रम उछल कर खड़ा हो जाता है] त्रिविक्रम-क्या है गुरुजी ? वेद-वेटा, अपनी गुरुआनी को समझाओ | आडम्बर फैलाकर आप भी कष्ट भोगती हैं, मुझे भी दुःख देती है । समझे ! त्रिविक्रम-गुरुदेव ! मेरा समझ मे तो कुछ आना असम्भव है। आपने इतना अध्ययन कराया, पर मेरी समझ मे कुछ न आया ? वेद--(चौंककर) मूर्ख ! मेरा मब परिश्रम व्यर्थ ही गया ? त्रिविक्रम - परिश्रम तो व्यर्थ ही किया जाता है। तिसपर समझने के लिये परिश्रम करना तो सब से भारी मूर्यता है । हट चलिये, वह आ रही है । [वेद और त्रिविक्रम का प्रस्थान । दामिनी का प्रवेश] दामिनो -उत्तंक नही आया। मेरी कामना के लक्ष्य-उत्तंक ! पुण्यक के बहाने मैंने तुझे बुलाया है । एक वार और परीक्षा करूंगी। [मणिकुण्डल लिये हुए उत्तंक का प्रवेश] उत्तंक-आर्या, मैं उत्तंक प्रणाम करता हूँ। दामिनी--कौन उत्तंक ! तुम आ गये ? उत्तंक-हाँ देवि, मणिकुण्डल भी प्रस्तुत है ! (सम्मुख रखता है) दामिनी-उत्तंक ! मुझे अपने हाथों से पहना दो। उत्तंक-देवि, क्षमा हो, मुझे पहनाना नहीं आता। दामिनी -उत्तंक ! तुम मुझे छूने से हिचकते क्यों हो? उत्तंक --नही देवि, मुझे गुरु-ऋण से मुक्त करें, मैं जाऊँ ! दामिनी-तो चले ही जाओगे ? आज मैं स्पष्ट कहना चाहती हूं कि- उत्तंक--चुप रहो देवि ! यदि ईश्वर का डर न हो तो संसार से तो डरो। पृथ्वी के गर्भ में असंख्य ज्वालामुखी हैं, कदाचित् उनका विस्फोट ऐसे ही अवसरों पर हुआ होगा। तुम गुरु-पत्नी हो, मेरी माता के तुल्य हो। (सवेग प्रस्थान) दामिनी -धिक्कार है मुझे ! (प्रस्थान) दृश्या न्त र ३०८ प्रमाद वाङ्मय