दामिनी- कहाँ चले उत्तंक ? उत्तंक–आर्या को प्रणाम करता हूँ। मैं फूल चुनने आया था, कुछ विलम्ब हो गया। अभी अग्नि-शाला का कार्य करना है, और सायकाल भी हो रहा है, इसी से शीघ्रता कर रहा हूँ। दामिनी-व्यर्थ इतनी त्वरा क्यो ? और भी तो छात्र है । कोई कर लेगा। ठहरो! उत्तंक-किन्तु गुरुदेव की आज्ञा है, मुझी पर यह सारा भार है। नही तो वे अप्रसन्न होगे। दामिनी-मैं उन्हे समझा लूंगी तुम्हे इसकी चिन्ता क्या है ! और, फिर, जो दूसरों की परवाह नहीं करते, उनके लिए दूसरे क्यो अपना सिर मारे । उत्तंक-यह बात तो मेरी समझ मे नही आयी। दामिनी-तुम्हे तो वैसी शिक्षा ही नही मिली है । तुम क्यो इसे समझने लगे ! उत्तंक-जैसा आप समझे गुरुजी तो कह रहे थे कि अबकी आने पर पर तुम्हे छुट्टी दे देगे तुम्हारा अध्ययन समाप्त हो चुका । किन्तु- ६.मी-तुम तो कुछ समझते ही नही । उत्तक-किन्तु मै दार्शनिक प्रतिज्ञाएँ अपने सहपाठियों मे भी विशेष शीघ्र समझता था, और गुरुजी की भी यही धारणा है। दामिनी -अच्छा बताओ, तुम फल क्यो चुनते हो ? उत्तंक-मुझे भले लगते है। दामिनी -तब तो तुम मानते हो जिसे जो भला लगे, उसे वह स्वायत्त करे, क्यों? उत्तंक- ठहरिये ! इस प्रतिज्ञा मे बोई आपत्ति नो नही है ' (सोचता है) नही-नही, यह ठीक नही। इमसे तो डाक भी कह सात है कि मुझे अमुक वस्तु प्रिय है, इसलिए मैं उसे लेता हूँ। मेरा यह कथन है कि फूल प्रकृति की उदारता का दान है। पवन उससे सौरभ लेता है, उसे कोई रोक नही सकता। स्वय जो उपवन का स्वामी है, वह भी इसमे असमर्थ है। वह सौरभ कहाँ-कहा ले जाकर किसे-किसे देता है, इसका कोई ठिकाना नही। अतएव यह सिद्ध हुआ कि फूल प्रकृति की दी हुई साधारण सम्पत्ति है, इसीलिये मैं लेता हूँ। ये मुझे रुचते भी है, और मेरे है भी। दामिनी-गुरुजी ने तुम्हे जितना तर्क पढाया है, उतनी यदि ससार की शिक्षा देते, तो तुम्हारा बहुत उपकार करते । अच्छा बताओ तो सही, यही फूल इन्ही दिनों में क्यो फूलता है ? उत्तंक-इसके विकसित होने की एक ऋतु होती है। जनमेजय का नाग यज्ञ: २९३
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