पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/३१०

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श्रीकृष्ण-तब तो तुम्हारे जैसे सैकड़ों अर्जुन केवल इस खाण्डव का भी उबार न कर सकेगे। अजी इसमें एक ओर से आग लगा दो ! अग्निदेव को वसा और मांस की आहुतियो से अजीर्ण हो गया है। उन्हे प्रकृत आहार की आवश्यकता है। श्वापदसंकुल जंगलों को सुन्दर जनपदो मे परिवर्तित कर देना उन्ही का काम है। अर्जुन-अरे, यह क्या कह रहे हो ! अभी तो विश्व भर की एकता का प्रतिपादन कर रहे थे, और अभी यह अनाचार ! इतने प्राणियों की हिंसा, और इन जंगलियो का निर्वामन सिखाने लगे | क्या यही विवेक है ? श्रीकृष्ण-(हंसकर) बलिहारी इस बुद्धि की | अजी जो उन विपक्षी द्वन्द्वों के पोषक है, जो मिथ्या विश्वास के सहायक है, क्या उनको समझाकर, उनके साथ शिष्टाचार करके अपना प्रयत्न सफल कर सकते हो ? यदि उन्हे समता मे ले आना है, तो जो जिस योग्य हो, उनसे वैसा ही संघर्ष करना पडेगा। जिनमे थोडी कसर है, वे हमसे ईर्ष्या करके ही हमारे बराबर पहुँचेगे। जो बहुत पिछडे हुए है, उन्हें फटकारने से ही काम चलेगा। जो हमारे विकास के विरोधी है और अपने को जड ही मानते है, उन्हे रूप बदलना ही पडेगा। दूसरा परिवर्तन ही उन्हे हमारे पास ले आवेगा। हमारी दृष्टि साम्य की है। भ्रम ने जिन्हे हेय बना रक्खा है, जिन्हे पद- दलित कर रक्खा है, जो अपने को जडता का अवतार मानते है, जो धार्मिक होने के बदले दस्यु होने मे ही अपना गौरव समझते है, उन्हे तो स्वय हमारा रूप धारण करना होगा। यह प्रतिक्रिया स्वाभाविक है। इसमे कोई दोष नही । विश्व मात्र एक अखण्ड व्यापार है। उसमे किसी का व्यक्तिगत स्वार्थ नही है। परमात्मा के इस कार्यमय शरीर में किम अग का बढा हुआ और निरर्थक अंग लेकर कौन-सी कमी पूरी करनी चाहिये, ग्रह सब लोग नही जानते। इसी से निजत्व और परकीयत्व के दु.ख का अनुभव होता है। विश्व मात्र को एक रूप मे देखने से यह सब सरल हो जाता है। तुम इसे धर्म और भगवान का कार्य समझ कर करो, तुम 'मुक्त' हो। बस अर्जुन, इस विषम व्यापार को सम करो। दुर्वृत्त प्राणियो का हटाया जाना ही अच्छे विचारो की रक्षा है। आत्मसत्ता के प्रतारक सकुचित भावो को भस्म करो ! लगा दो इसमे आग ! [अर्जुन खाण्डव-दाह करता है। बड़ा हल्ला मचता है। प्राणियों की बड़ी संख्या भस्म होती है । नाग लोग चिल्ला कर भागते है] श्रीकृष्ण-सखे, सावधान ! इसे बुझाने का प्रयत्न करने वाले भी अपने आप को न बचा सकेगे। [दोनों धनुष सँभालते और बाण चलाते हैं। पूर्व-परिवर्तित दृश्य अदृश्य हो जाता है] २९०: प्रसाद वाङ्मय