पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/२९

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वत्स भीम ! शत्रु को दुःखी देखना और घृणित उपाय से बल-प्रयोग करने को क्रूरता कहते हैं । तुम वीर हो, वीरता को ग्रहण करो अरिहूँ से छल कर नहीं सन्मुख रन रोपै । दृढ़ कर में करवाल गहै मिथ्या पर कोप ॥ दुखी कर नहिं द्विज, मुरभी, अबला नारी को। लक्षण ये सव सत्य-वीर-व्रत के धारी को॥ [भीम कुछ कहना चाहता है, इतने में रोते हुए दासी और रानियों का प्रवेश] दासी और रानी-धर्मावतार ! रक्षा करिये ! युधिष्ठिर -क्या है क्या ? दासी- भीष्मादि गुरुजनों के मना करने पर भी कौरवनाथ विहार करने के हेतु यहां आये थे, सो अकारण गन्धर्वो के साथ युद्ध हो गया, गन्धर्व लोग कौरवपति को समित्र बांधे लिये जाते हैं, रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये ! युधिष्ठिर :-वत्स अर्जुन ! जाओ, उन्हें शीघ्र छुड़ा लाओ--(दासियों से)- क्यों, वे कितनी दूर गये हैं ? दामी ---अभी वह वहीं होंगे महाराज ! रक्षा कीजिये ! [अर्जुन जाते हैं]] [पट-परिवर्तन] चतुर्थ दृश्य (स्थान-द्वैत सरोवर) [दुर्योधन को पकड़े हुए विद्याधर ले जाने को उत्सुक हैं] विद्याधर-चल, अब चलता क्यों नही, लड़ने के लिए तो बहुत बल था। दूसरा-शकुनी, कोई जुए की चाल यहां भी सोच रहे हो क्या ? तीसरा-यह न समझना कि निकल भागेगे। कर्ण--(क्रोध से)-क्या वकबक करता है, अपना काम कर, चलते है न" । विद्याधर-ओ हो !२४ इन्हें अपमान के साथ नहीं ले चलना होगा, उचित मान की आवश्यकता है। चित्रसेन–क्यों दुष्टों ! अब छल पाण्डवों को मारने का विचार न करोगे १५ (विद्याधरों से)-आओ, अब इन सबको ले चलें (इतना कह कर चित्रसेन ज्यों ही चलने को उद्यत होता है, वैसे ही अर्जुन प्रवेश करता है) अर्जुन-ठहरो, ठहरो, तुम लोगों का प्रधान कौन है ? २३. दाम कही का! २४. आह ! स्वामी है स्वामी २५. फिर मारोगे? सज्जन : १३