था, तब तुम धर्मध्वज बन गये थे; और हमारे बच्चे को धोखा दिया ! अब सुनती हूँ कि वह उदयन के हाथ से घायल हुआ है। उसका पता भी नहीं है । दीर्घकारायण-मै विश्वास दिलाता हूँ कि कुमार विरुद्धक अभी जीवित हैं। वह शीघ्र कोसल आवेंगे। शक्तिमती-किन्तु तुम इतने डरपोक और सहनशील दास हो, मैं ऐसा नहीं समझती थी। जिसने तुम्हारे मातुल का बध किया, उसी की सेवा करके अपने को धन्य समझ रहे हो ! तुम इतने कायर हो, यदि मैं पहले जानती! दीर्घकारायण-तब क्या करती? अपने स्वामी की हत्या करके अपना गौरव, अपनी विजय-घोषणा स्वयं सुनाती ? शक्तिमती-यदि पुरुष इन कामों को कर सकता है तो स्त्रियां क्यों न करें ? क्या उन्हें अन्तःकरण नहीं है ? क्या स्त्रियाँ अपना कुछ अस्तित्व नहीं रखती? क्या उनका जन्म-सिद्ध कोई अधिकार नहीं ? क्या स्त्रियों का सब कुछ, पुरुषों की कृपा से मिली हुई भिक्षा-मात्र है ? मुझे इस तरह पदच्युत करने का किसी को क्या अधिकार था ? दीघेारायण--स्त्रियों के संगठन में, उनके शारीरिक और प्राकृतिक विकास में ही, एक परिवर्तन है-जो स्पष्ट बतलाता है कि वे शासन कर सकती हैं; किन्तु अपने हृदय पर । वे अधिकार जमा सकती है उन मनुष्यों पर-जिन्होंने समस्त विश्व पर अधिकार किया हो। वे मनुष्य पर राजरानी के समान एकाधिपत्य रख सकती हैं, तब उन्हें इस दुरभिमन्धि की क्या आवश्यकता है जो केवल सदाचार और शान्ति को ही नहीं शिथिल करती किन्तु उच्छृखलता को भी आश्रय देती है ! शक्तिमती--फिर बार-बार यह अवहेलना कैसी ? यह बहाना कैसा ? हमारी असमर्थता सूचित करा कर हमें और भी निर्मूल आशंकाओं में छोड़ देने की कुटिलता क्यों है ? क्या हम पुरुष के समान नहीं हो सकती ? क्या चेष्टा करके हमारी स्वतन्त्रता नहीं पददलित की गयी है ? देखो, जब गौतम ने स्त्रियों को भी प्रव्रज्या लेने की आज्ञा दी, तब क्या वे ही सुकुमार स्त्रियाँ परिवाजिका के कठोर व्रत को अपनी सुकुमार देह पर नहीं उठाने का प्रयास करती? दीर्घकारायण-किन्तु यह साम्य और परिवाजिका होने की विधि भी तो उन्हीं पुरुषों में से किसी ने फैलायी है । स्वार्थत्याग के कारण वे उनकी घोषणा करने में समर्थ हुए, किन्तु समाज भर मे न तो स्वार्थी स्त्रियों की कमी है, न पुरुषों की और सब एक हृदय के है भी नही, फिर पुरुषों पर ही आक्षेप क्यों ? जितनी अन्तः करण की वृत्तियों का विकास सदाचार का दान करके होता है-उन्हीं को जनता कर्तव्य का रूप देती है । मेरी प्रार्थना है कि तुम भी उन स्वार्थी मनुष्यों की कोटि में मिलकर बवण्डर न बनो। अजातशत्रु : २६९
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