पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/२८५

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दीर्घकारायण-राजकुमारी ! मैं कठोर कर्तव्य के लिए बाध्य हूँ। इस बन्दी राजकुमार को ढिठाई की शिक्षा देनी ही होगी। बाजिरा-क्यों? बन्दी भाग तो गया नहीं, भागने का प्रयास भी उसने नहीं किया; फिर ! दीर्घकारायण-फिर ? आह ! मेरी समस्त. आशाओं पर तुमने पानी फेर दिया ! भयानक प्रतिहिंसा मेरे हृदय में जल रही है; उस युद्ध में मैंने तुम्हारे लिये ही""" बाजिरा-सावधान ! कारायण अपनी जीभ संभालो ! अजातशत्रु - दीर्घकारायण ! यदि तुम्हें अपने बाहुबल पर भरोसा हो तो मैं तुमको द्वन्द्व युद्ध के लिए आह्वान करता हूँ। दीर्घकारायण-मुझे स्वीकार है, यदि राजकुमारी की प्रतिष्ठा पर आंच न पहुंचे । क्योकि मेरे हृदय में अभी भी स्थान है । क्यों राजकुमारी, क्या कहती हो ? अजातशा-तब और किसी समय । मैं अपने स्थान पर जाता हूँ। जाओ राजनन्दिनी! वाजिग-किन्तु दीर्घकारायण ! मैं आत्म-समर्पण कर चुकी हूँ। दीर्घकारायण-यहां तक ! कोई चिन्ता नही । इस समय तो चलिये, क्योंकि महारार ॥ ही चाहते है। [अजात अपने जंगले में जाता है, एक ओर दीर्घकारायण और राजकुमारी बाजिरा जाती है, दूसरी ओर से वासवी और प्रसेनजित् का प्रवेश] प्रसेनजित्-क्यों कुणीक, अब क्या इच्छा है ? वासवी -न न, भाई ! खोल दो। इसे मैं इस तरह देखकर बात नहीं कर सकती । मेरा बच्चा कुणीक"" प्रसेनजित्-बहिन ! जैसा कहो। (खोल देता है, वासवी अंक में ले लेती है) अजातशत्र-कौन ? विमाता ! नही, तुम मेरी मां हो । मां ! इतनी ठण्डी गोद तो मेरी मां की भी नही है । आज मैंने जननी की शीतलता का अनुभव किया। मैंने तुम्हारा बडा अपमान किया है, मां ! क्या तुम क्षमा करोगी? वासवी-वत्स कुणीक | वह अपमान भी अब क्या मुझे स्मरण है। तुम्हारी माता, तुम्हारी मां नही है, मैं तुम्हारी मां हूं। वह तो डायन है, उसने मेरे सुकुमार बच्चे को बन्दी-गृह मे भेज दिया ! भाई, मै इसे शीघ्र मगध के सिंहासन पर भेजना चाहती हूँ, तुम इसके जाने का प्रबन्ध कर दो। अजातशा-नही मां, अब कुछ दिन उस विषैली वायु से अलग रहने दो। तुम्हारी शीतल छाया का विश्राम मुझसे अभी नही छोड़ा जायगा। (घुटने टेक देता है, वासवी अभय का हाथ रखती है) दृश्या न्त र - अजातशत्रु : २६५