शक्तिमती-अच्छा, अब हम लोगों को शीघ्र चलना चाहिये, सब जनता नगर की ओर जा रही है । देखो, सावधान रहना, मेरा रथ भी बाहर खडा होगा। दीर्घकारायण-कुछ सेना अपनी निज की प्रस्तुत कर लेता हूँ, जो कि राजसेना से बराबर मिली-जुली रहेगी और काम के समय हमारी आज्ञा मानेगी। शक्तिमती-और भी एक बात कहनी है-कौशाम्बी का दूत आया है। सम्भवतः कौशाम्बी और कोसल की सेना मिलकर अजात पर आक्रमण करेगी। उस समय तुम क्या करोगे? दीर्घकारायण - उस समय वीरो की तरह मगध पर आक्रमण करूँगा और सम्भवतः इस बार अवश्य अजात को बन्दी बनाऊँगा। अपने घर की बात अपने घर मे ही निपटेगी शक्तिमती-(कुछ सोचकर) -अच्छा । (दोनों जाते है) दृश्या न्त र नवम दृश्य [कौशाम्बी के पथ में जीवक और वसन्तक] वसन्तक-(हँसता हुआ) -तब इसमे मेरा क्या दोष ? जीवक-जब तुम दिन-रात राजा के समीप रहते हो और उनके सहचर बनने का तुम्हे गर्व है, तब तुमने क्यो नही ऐसी चेष्टा की-- वसन्तक-कि राजा बिगड़ जायें ? जीवक-अरे बिगड जायँ कि सुधर जायें । ऐसी बुद्धि को"। वसन्तक-धिक्कार है, जो इतना भी न ममझे कि राजा पीछे चाहे स्वयं सुधर जाय, अभी तो हमसे बिगड़ जायेंगे। जीवक-तब तुम क्या करते हो? वसन्तक-दिन-रात सीधा किया करते है। बिजली की रेखा की तरह टेढ़ी जो राजशक्ति है, उसे दिन-रात संवार कर, पुचकार कर, भयभीत होकर, प्रशसा करके सीधा करते है। नही तो न जाने किस पर वह गिरे ! फिर, महाराज ! पृथ्वीनाथ ! यथार्थ है । आश्चर्य ! इत्यादि के क्वाथ से पुटपाक""। जीवक-चुप रहो, बको मत, तुम्हारे ऐसे मूों ने ही तो सभा को बिगाड़ रक्खा है ! जब देखो परिहास ! वसन्तक-परिहास नही अट्टहास । उसके बिना क्या लोगों का अन्न पचता है ! बल क्या है-तुम्हारी बृटी में ? अरे | जो मै सभा को बनाऊँ, तो क्या अपने को बिगाई ? और फिर झाडू लेकर पृथ्वी देवता को मोरछल करता फिरूं ? देखो न अपना मुख आदर्श मे - चले सभा बनाने, राजा को सुधाग्ने ! इस समय तो। अजातशत्रु : २५७
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