भाया। अब कहाँ चलना चाहिये। श्रावस्ती तो अपनी राजधानी है। पर यहां अब एक मण भी मैं नहीं ठहरूंगा। माता से भेंट हो चुकी, इतना द्रव्य भी हाथ लगा। बध कारायण से मिलता हुआ एक बार सीधे राजगृह । रहा अजात से मिलना किन्तु अब कोई चिन्ता नही, क्यामा तो रही नहीं, कौन रहस्य खोलेगा ? समुद्रदत्त के लिए मैं भी कोई बात बना दूंगा। तो चलू, इस संधाराम में कुछ भीड़-सी एकत्र हो रही है, यहां ठहरना अब ठीक तहीं (जाता है) [एक भिक्षु का प्रवेश] भिक्षु-आश्चर्य ! वह मृत स्त्री जी उठी और इतनी देर में दुष्टों ने कितना आतंक फैला दिया था। समग्र विहार मनुष्यों से भर गया था। दुष्ट जनता को उभाड़ने के लिए कह रहे थे कि पाखण्डी गौतम ने उसे मार डाला। इस हत्या में गौतम की ही कोई बुरी इच्छा थी ! किन्तु उसके स्वस्थ होते ही सबके मुंह में कालिख लग गयी । और अब तो लोग कहते हैं कि धन्य हैं, गौतम बड़े महात्मा हैं । उन्होंने मरी हुई स्त्री को जिला दिया !' मनुष्यों के मुख में भी तो सांपों की तरह दो जीभ हैं । चलूँ देखू, कोई बुला रहा है । (जाता है) [रानी शक्तिमती और दीर्घकारायण का प्रवेश] शक्तिमती-क्यों सेनापति, तुम तो इस पद से सन्तुष्ट होंगे? अपने मातुल की दशा तो अब तुम्हें भूल गयी होगी? दीर्घकारायण नहीं रानी ! वह भी इस जन्म में भूलने की बात है ! क्या करूं, मल्लिका देवी की आज्ञा से मैंने यह पद ग्रहण किया है; किन्तु हृदय में बड़ी ज्वाला धधक रही है ! शक्तिमती -पर तुम्हें इसके लिए चेष्टा करनी चाहिये, स्त्रियों की तरह रोने से काम न चलेगा। विरुद्धक ने तुमसे भेंट की थी? दीर्घकारायण-कुमार बड़े साहसी हैं-मुझसे कहने लगे कि 'अभी मैंने एक हत्या की है और उससे मुझे यह धन मिला है, सो तुम्हे गुप्त-सेना-संगठन के लिए देता हूं। मैं फिर उद्योग में जाता हूँ। यदि तुमने धोखा दिया, तो स्मरण रखना- शैलेन्द्र किसी पर दया करना नहीं जानता।' उस समय मैं तो केवल बात ही सुन कर स्तब्ध रह गया। बस स्वीकार करते ही बना रानी ! उस युवक को देखकर मेरी आत्मा कांपती है। शक्तिमती-अच्छा, तो प्रबन्ध ठीक करो। सहायता मैं दूंगी। पर यहां भी अच्छा खेल हुआ दीर्घकारायण-हम लोग भी तो उसी को देखने आये थे। आश्चर्य ! क्या जाने कैसे वह स्त्री जी उठी ! नहीं तो अभी ही गौतम का सब महात्मापन भूल जाता। - २५६ :प्रसाद वाङ्मय
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