[श्यामा सोयी हुई भयानक स्वप्न देख रही है, उससे चौंक कर उठती है] श्यामा-शैलेन्द्र शैलेन्द्र क्यों प्रिये । श्यामा-प्यास लगी है। शैलेन्द्र-क्या पियोगी? श्यामा-जल। शैलेन्द्र-प्रिये । जल तो नही है । यह शीतल पेय है, पी लो। श्यामा-विष ! ओह सिर घूम रहा है । मै बहुत पी चुकी हूँ। अब "जल"" भयानक स्वप्न । क्या तुम मुझे जलते हुए हलाहल की मात्रा पिला दोगे ! (अर्द्ध- निमीलित नेत्रों से देखती हुई) अमृत हो जाएगा, विष भी पिला दो हाथ से अपने । पलक ये छक चुके हैं चेतना उसमे लगी कंपने ॥ विकल है इन्द्रियां, हाँ देखते इस रूप के सपने । जगत विस्मृत हृदय पुलकित लगा वह नाम है जपने ॥ शैलेन्द्र-छि । यह क्या कह रही हो? कोई स्वप्न देख रही हो क्या ? लो थोड़ी पी लो (पिला देता है) श्यामा-मैंने अपने जीवन भर मे तुम्ही को प्यार किया है। तुम मुझे धोखा तो नही दोगे ? ओह ! कैसा भयानक स्थान हैं | उसी स्वप्न की तरह"" शैलेन्द्र -क्या बक रही हो ! सो जाओ, वन-विहार से थकी हो। श्यामा-(आँखें बन्द किये हुए)-क्यो यहां ले आये ! क्या घर मे सुख नहीं मिलता था ? शैलेन्द्र -कानन की हरी-भरी शोभा देखकर जी बहलाना चाहिये, क्यों तुम इस प्रकार बिछली जा रही हो। श्यामा-नही नही, मै आँख न खोलूंगी, डर लगता है, तुम्ही पर मेरा विश्वास है, यही रहो (निवित होती है) शैलेन्द्र-(स्वगत)-सो गयी ! आह ! हृदय मे एक वेदना उठती है-ऐसी सुकुमार वस्तु ! नही-नही ! किन्तु विश्वास के बल पर ही इसने समुद्रदत्त के प्राण लिये ! यह नागिन है, पलटते देर नही। मुझे अभी प्रतिशोध लेना है"दावाग्नि-सा बढ़कर फैलना है, उसमे चाहे सुकुमार तृण-कुमुम हो अथवा विशाल शालवृक्ष; दावाग्नि या अन्धड़ छोटे-छोटे फूलो को बचाकर नही चलेगा। तो बस"" श्यामा-(जगकर)-शैलेन्द्र ! विश्वास ! देखो कही""ओह भयानक... (आँखें बन्द कर लेती है) . २५४ : प्रसाद वाङ्मय
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