पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/२४

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दुर्योधन-(झिड़क कर) बाहर जाओ। विदूषक-जाता हूँ सरकार ! (विदूषक बाहर जाता है) कर्ण-इमके सामने मंत्रणा करना ठीक नहीं है। शकुनी-मंत्रणा क्या है ? मृगया खेलने चलोगे न ? (इंगित करता है) पशु भी तो इसी वन में हैं। कर्ण और दुर्योधन-हाँ, हाँ, ठीक है । (आपस में इंगित कर चुप रह जाते हैं) [नेपथ्य में] "अरे छोड़ छोड, गरदन दुखती है, धीरे से पकड़े रह, बतलाता हूँ"। [सब आश्चर्य से देखते हैं । विदूषक को पकड़े हुए एक राक्षस आता है] कर्ण-(क्रोधित होकर)-तू कौन है ? नही जानता कि किसके सामने खड़ा है ? राक्षस-(उसे छोड़ कर) -जानता हूँ ! बुद्धि की जिसे अजीर्ण है और जिसे केवल कर्ण ही का सहारा है, उस कौरवाधिपति के सामने । कर्ण-(उठ कर) रे नीच मीच तव कंध नगीच आई जो कौरवाधिप समीप करै ढिठाई, क्यों ह अभीत इत आवन दुष्ट कीन्ह्यों, वेग वताव मम खड्ग कबौं न चीन्यो, दुःशासन --(राक्षस से) क्यों, तू क्यों यहां आया है ? राक्षस - महाराज गन्धर्वाधिराज चित्रसेन ने कहा है कि दुर्योधन से कहो कि मृगया खेलने का विचार यहाँ न करें। उत्सव कर चुके, अब यदि अपना कुशल चाहें तो यहाँ से हस्तिनापुर को प्रयाण करें। कर्ण-(क्रोधित होकर) जा जा, अपने स्वामी से कह दे कि हमलोग अवश्य मृगया खेलेगे। राक्षस-अच्छा (सिर हिलाता हुआ जाता है, और विदूषक की टांग पकड़कर खींचता जाता है) विदूषक अरे छोड़ दुख मत दे, मैं नो जिमकी विजय होगी, उमी के पक्ष में रहूंगा। [राक्षस उसे छोड़ कर चला जाता है] [पट परिवर्तन] ८. छोड़ उसको ९. हो गई १०. मत दुख दें ८:प्रसाद वाङ्मय