पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/२३६

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देवदत्त-यह पुरानी मण्डली का गुप्तचर है, समुद्र । युवराज से कहो कि इसका उपाय करें। यह विद्रोही है, इसका मुख बन्द होना चाहिये। जीवक-ठहरो, मुझे कह लेने दो। मैं ऐसा डरपोक नहीं हूँ कि जो बात तुमसे कहनी है, उसे मैं दूसरों से कहूँ ।। मैं भी राजकुल का प्राचीन सेवक हूँ। तुम लोगों की यह कूटमन्त्रणा अच्छी तरह समझ रहा हूँ। इसका परिणाम कदापि बच्छा नहीं। सावधान, मगध का अधःपतन दूर नहीं है । (जाता है) सुदत्त-(प्रवेश करके)-आर्य समुद्रदत्तजी ! कहिये, मेरे जाने का प्रबन्ध ठीक हो गया है न ? शीघ्र कोसल पहुंच जाना मेरे लिए आवश्यक है । महारानी तो अब जायेगी नहीं क्योंकि मगध-नरेश ने वानप्रस्थ आश्रम का अवलम्बन लिया है। फिर मैं ठहर कर क्या करूंगा ? समुद्रदत्त-किन्तु युवराज ने तो अभी आपको ठहरने के लिये कहा है। सुदत्त-नहीं, मुझे एक क्षण भी यहां ठहरना अनुचित जान पड़ता है, मैं इसीलिए आपको खोजकर मिला हूँ। मुझे यहां का समाचार कोसल शीघ्र पहुंचाना होगा । युवराज से मेरी ओर से क्षमा मांग लीजियेगा। (जाता है) देवदत्त-चलो, युवराज के पास चलें (दोनों जाते हैं) दृश्या न्त र चतुर्थ दृश्य [उपवन में महाराज बिम्बसार और महारानी वासवी] बिम्बिसार-देवि, तुम कुछ समझती हो कि मनुष्य के लिए एक पुत्र का होना क्यों इतना आवश्यक समझा गया है ? वासवी -नाथ ! मैं तो समझती हूँ कि वात्सल्य नाम का जो पुनीत स्नेह है, उसी के पोषण के लिए। बिम्बसार~-स्नेहमयी ! वह भी हो सकता है, किन्तु मेरे विचार में कोई और ही बात है। वासवी-वह क्या, नाथ ? बिम्बसार-संसारी को त्याग, तितिक्षा या विराग होने के लिए पहला और सहज साधन है । पुत्र को समस्त अधिकार देकर वीतराग हो जाने से असन्तोष नहीं होता; क्योंकि मनुष्य अपनी ही आत्मा का भोग उसे भी समझता है। वासवी-मुझे यह जानकर प्रसन्नता हुई कि आपको अधिकार से वंचित होने का दुःख नहीं। बिम्बिसार-दुःख तो नहीं, देवि ! फिर भी इस कुणीक के अवहार से ११६:प्रसाद वाङ्मय