द्वितीय दृश्य ? [महाराज बिम्बिसार एकाकी बैठे हुए आप-ही-आप कुछ विचार रहे हैं] बिम्बिसार-आह, जीवन की क्षणभंगुरता देखकर भी मानव कितनी गहरी नीव देना चाहता है। आकाश के नीले पत्र पर उज्ज्वल अक्षरो से लिखे अहष्ट के लेख जब धीरे-धीरे लुप्त होने लगते है, तभी तो मनुष्य प्रभात समझने लगता है, और जीवन संग्राम मे प्रवृत्त होकर अनेक अकाण्ड-ताण्डव करता है। फिर भी प्रकृति उसे अन्धकार की गुफा मे ले जाकर उसका शान्तिमय, रहस्यपूर्ण भाग्य का चिट्ठा समझाने का प्रयत्न करती है, किन्तु वह कब मानता है ? मनुष्य, व्यर्थ महत्त्व की आकांक्षा मे मरता है, अपनी नीची, किन्तु सुदृढ परिस्थिति मे उसे सम्तोष नही होता, नीचे से ऊँचे चढना ही चाहता है. चाहे फिर गिरे तो भी क्या। छलना-(प्रवेश करके) और नीचे के लोग वही रहे ! वे मानो कुछ अधिकार नही रखते ? ऊपरवालो का यह क्या अन्याय नही है ? बिम्बिसार-(चौक कर) कौन, छलना ? छलना-हॉ महाराज | मैं ही हूँ। बिम्बिसार- तुम्हारी बात मै नही समझ सा ! छलना - साधारण जीवो मे भी उन्नति की चेष्टा दिखाई देती है महाराज ! इमकी किमको चाह नहीं है । महत्व यह अर्थ नही कि सबको क्षुद्र समझे । विम्बिसार-तब ? छलना- यही कि मैं छोटी हूँ इसलिये पटरानी नहीं हो सकी, और वासवी मुझे इसी बात पर अपदस्थ क्यिा चाहती है। बिम्बिसार - छलना तुम तो राजमाता हो। देवी वासवी के लिये थोडा-सा भी सम्मान रक्षिन कर लेना तुम्हे विशेष लघु नही बना सकता- उन्होने कभी तुम्हारी अवहेलना भी तो नहीं की। छलना-इन भुनावो मे नहीं आ सकती। महाराज | मेरी धमनियो मे लिच्छवि-रक्त बढी शीघ्रता मे दौडता है। यह नीरव अपमान, यह साकेतिक घृणा, मुझे सह्य नही, और जब कि खुल कर कुणीक का अपकार किया जा रहा है, तब तो- बिम्बिसार ठहरो तुम्हारा यह अभियोग अन्यायपूर्ण है । क्या इसी कारण तो बेटी पद्मावती नही चली गयी? क्या इसी कारण तो कुणीक मेरी भी आज्ञा सुनने मे आनाकानी नही करने लगा है ? कैमा उत्पात मचाया चाहती हो ? छलना-मैं उत्पात रोकना चाहती हूँ। आपको कुणीक के युवराज्याभिषेक की घोषणा आज ही करनी पड़ेगी। यह क्या । २१२ : प्रसाद वाङ्मय
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