पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/२३

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कर्ण-'कुछ और गाओ। दुर्योधन-मित्र कर्ण ! पाण्डवों को हमारे आने का पता लगा कि नहीं ? कर्ण-अवश्य ही उन्हें ज्ञात होगा। दुःशासन वे पांचों इम ममय अकेले होंगे, समय तो अच्छा है। कर्ण-चुप "हाँ हमारे विभव को देखकर वे अवश्य ईर्ष्या से जलते होंगे, और हम लोगों के आने का तात्पर्य भी तो यही है । दुर्योधन-(ऊर्ध्व सांस ले कर)-जब से अर्जुन के अस्त्र-प्राप्ति की वात हमने सुनी है, तब मे हमारे मन में बड़ी आशंका है। कर्ण-कुछ आशंका नहीं है। जो चण्ड आप भुजदण्ड रहे सहारे । है नित्य नूतन हिये महँ ओज धारे ॥ उद्योग सों विरत होय कबौ न हेली। लक्ष्मी मदा रहन तासु बनी सुचेली ।। दुर्योधन - क्यों न हो मित्र कर्ण ! तुम ऐसा न कहोगे तो कौन कहेगा (कर्ण सिर हिलाता है)। विदूषक-(स्वगत)-देखो केवल कर्ण से मलाह लेने वाले मनुष्यों की क्या दशा होती है। मनुष्यों ! तुम्हें ईश्वर ने आँख भी दिया है, उससे कार्य लिया करो, हमारे राजा दुर्योधन का तो केवल कर्ण ही मित्र है, और होना भी चाहिए, क्योंकि धृतराष्ट्र का पुत्र है । कर्ण-ओ बतोलिये ! क्या बड़बड़ाता है ? विदूषक (हाथ जोड़ कर) जी धर्मावतार ! नही। कर्ण-झूठ बोलता है, और मुंह के सामने । दुर्योधन–चला जा सामने से। कर्ण-जा मुंह मत दिखा। [विदूषक मुंह बना कर मुंह फेर लेता है] ७. [गाने वाली पुरस्कार लेकर गाती है] पियो प्रिय प्रेमपूर प्याला। सुन्दर रूप सुजान तेसही, अहै मुगन्धित हाला। हिय की दरद मिटाव वेगही, काहे करत बेहाला ॥ पियो प्रिय०- [नाचती हुई गाती है । दुर्योधन पुरस्कार में हार देता है। अभिवन्दन करके गाने वाली चली जाती है] सज्जन:७