पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/२१५

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भिक्षु-उपासिका, मैं इसी चतुष्पथ पर यज्ञ-बलि देकर आता हूँ। तब इसको खोलना होगा। बस सब एकदम छू मन्तर ! तरला-सब छू मन्तर? भिक्षुः -तब तक आंख न खोलना, नहीं तो सब". तरला-क्या छू मन्तर ? भिक्षु-हाँ हाँ, चुप होकर मन्त्र का जप-ध्यान करो। [तरला 'खिचिट स्वाहा' जपती है। भिक्षु सब लेकर चम्पत हो जाता है। तरला थोड़ी देर बाद आँख खोलती है। गड्ढा खाली देख कर कहती है-'हाय रे सब छू मन्तर !'] [गिर पड़ती है] दृश्या न्त र चतुर्थ दृश्य [स्थान-राजदरबार । राजा नरदेव सिंहासन पर। विशाख और चन्द्रलेखा बन्दी के रूप में] नरदेव-क्यों विशाख ! हमारे उपकारों का क्या यही प्रतिफल है कि तुम मेरा अपमान करते हुए मेरे सहचर की हत्या करो ? तुम्हारा इतना साहस ! विशाख-नहीं जानता हूँ कि उस समय क्या उत्तर दिया जाता है जब कि अभियोग ही उल्टा हो और जो अभियुक्त हो-वही न्यायाधीश हो ! नरदेव-ब्राह्मणत्त्व की भी सीमा होती है, राज्यशासन के वह वहिर्भूत नही है। क्या अपने दण्ड का तुम्हें ध्यान नहीं है ? विशाख-न्याय यदि सचमुच दण्ड देता है तो मैं नहीं कह सकता कि हम दोनों में, किसे वह पहिले मिलेगा । नरदेव-चुप रहो । दौवारिक ! दीवारिक-(प्रवेश करके)-पृथ्वीनाथ ! क्या आज्ञा है ? नरदेव-इस विशाख ने अपराध स्वीकार किया है। इसका सर्वस्व अपहरण करके इसे केवल राज्य से बाहर कर दो। चन्द्रलेखा-और मुझे क्या आज्ञा है ? नरदेव-तुम्हारा विचार फिर होगा। चन्द्रलेखा-मेरा अपराध ? नरदेव-मैं सब बातों का उत्तर देने को बाध्य नहीं। विशाख-तो मैं भी बाहर जाने को बाध्य नहीं। विशाख : १९९