पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/२११

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विशाख-बस चुप रहो, तुम ऐसे नीचों का मुंह भी देखने में पाप है । महापिंगल-चन्द्रलेखा को राजा के महल मे जाना ही होगा। क्यों तब और व्यर्थ प्राण जावें। [विशाख तलवार खींच लेता है] विशाख-अच्छा सावधान ! इस अपमान का प्रतिफल भोगने के लिए प्रस्तुत हो जा। [महापिंगल भागना चाहता चन्द्रलेखा बचाना चाहती है, किन्तु विशाख की तलवार उसका प्राण संहार कर देती है] चन्द्रलेखा-अनर्थ हो गया प्राणनाथ ! यह क्या अब तो भविष्य भयानक होकर स्पष्ट है। विशाख-मरण जब दीन जीवन से भला हो, सहे अपमान क्यो फिर इस तरह हम । मनुज होकर जिया धिक्कार से जो, कहेगे पशु गया-बीता उसे हम॥ [सैनिकों का प्रवेश । विशाख को घेर लेते है । वह तलवार चलाता हुआ बन्दी होता है । चन्द्र लेखा भी पकड़ ली जाती है] [सुश्रवा का प्रवेश]] सुश्रवा-यह क्या अनर्थ? सैनिक-देखता नही है -राजानुचर महापिंगल का यह शव है। इसी विशाख ने अभी इसकी हत्या की है। सुश्रवा-क्यो वत्स विशाख ! यह क्या सत्य है ? विशाख-सत्य है। इसने मेरा अपमान किया और मेरे सामने मेरी स्त्री को प्रलोभन दिया-उसे सामान्य वेश्या से भी नीच समझ लिया ! सैनिक-इसका निर्णय तो महाराज स्वयं करेगे। अब चलो यहाँ से । सुश्रवा-ठीक तो, किन्तु यह बताओ चन्द्रलेखा ने क्या अपराध किया है-उसे क्यों ले जाते हो? चन्द्रलेखा- मुझे जाने दो बाबा । मै साथ जा रही हूँ। कोई चिन्ता नही। सैनिक-बूढ़े ! चुप रह । राजाज्ञा के विरुद्ध कुछ नही कर रहे है । [दोनों को लेकर जाता है। रमणी और इरावती तथा कुछ नागों का प्रवेश] सुश्रवा-चन्द्रलेखा गई, विशाख भी गया, हा". रमणी-आने में देर हुई, कोई चिन्ता नही। पहला नाग-देवी ! तब क्या उपाय है ? विशाख : १९५