पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/२०४

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महापिंगल-अजी, राजा प्रसन्न होंगे तो तुम्हारे लिए उसको फिर से बनवा देंगे, किन्तु हाँ, काम करना होगा। भिक्षु-अभी तो काम भी नहीं समझ में आया । महापिंगल--- रमण्याटवी में एक दम्पति रहते है । स्त्री का नाम है चन्द्रलेखा । वह परम सुन्दरी है, इसी कारण महाराज उसको चाहते है । भिक्षु-तो इसमें मैं क्या करूं ? महापिंगल–चैत्य की पूजा करने जब वह जाती है तब तुम वहाँ के देवता बनकर उसे आज्ञा दो कि वह राजा से प्रेम करे । भिक्षु-तो फिर क्या होगा? महापिंगल-होगा क्या-तुम धर्म-महामात्य होगे और मैं दण्डनायक हूंगा। चन्द्रलेखा रानी होगी। भिक्षु-और यदि न करूं? महापिगल-तब तो राज्य-रहस्य जाननेवाला मुण्डित मस्तक लोटन-कबूतर हो जायगा। भिक्षु तथागत ! यहाँ मैं क्या करूं ? (कुछ सोच कर) अच्छा मुझे स्वीकार है। [दोनों जाते हैं दृश्यान्तर सप्तम दृश्य [अंधेरी रात । स्थान-चैत्य भूमि-प्रेमानन्द वहीं पर बैठा है] प्रेमानन्द : मान लूं क्यों न उसे भगवान ? नर हो या किन्नर कोई हो निर्बल या बलवान; किन्तु कोश करुणा का जिसका हो पूरा; दे दान । मान लूं क्यों न उसे भगवान ? विश्व-वेदना का जो सुख से करता है आह्वान, तृण से त्रायस्त्रिश तक जिसको समसत्ता का भान । मान लं क्यां न उसे भगवान ? मोह नहीं है किन्तु प्रेम का करता है सम्मान, द्वेषी नहीं किसी का, तब सब क्यों न करें गुणगान । मान लूं क्यों न उसे भगवान ? १८८: प्रसाद वाङ्मय