पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/२०२

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नरदेव-तो फिर सुन्दरी ! तुम्हें बड़ा कष्ट हुआ। चन्द्रलेखा-(दूध लाती है) श्रीमान्, कष्ट क्यों हो? जो लब्ध पदार्थ हैं उन्हें आदरणीय अतिथि के सामने रखने में मुझे कुछ संकोच नही है, और कृत्रिमता का यहाँ साधन भी नही है। [राजा और महापिंगल दूध पीते है] महापिगल-तृप्त हुआ-अब आशीर्वाद क्या दूँ (कुछ ठहर कर) अच्छा तुम राजरानी हो। चन्द्रलेखा -ब्राह्मण देवता, यह कैसा अन्याय ! आप मुझे शाप न दीजिये। मेरी इस झोपड़ी मे राजमन्दिर से कही बढ़ कर आनन्द है । हमारे नरपति के सुराज्य में हम लोगो को कानन मे भी सुख है। महापिगल-ठीक है। खटमल को पुगनी गुदडी मे ही सुख है। राज-सुख क्या सहज लभ्य है ? चन्द्रलेखा -यह क्या ! प्रलोभन है या परिहास है ? नरदेव -नही, नही, प्रिये, यह नरदेव सचमुच तुम्हारा दास है । चन्द्रलेखा तो क्या मै अपने को अधर्म के पंजे मे समझू ओर नीति को केवल मौखिक कल्पना मान लूं। नरदेव-डरो मत, मैं तुम्हारा होकर रहूंगा । क्या मेरी इस प्रार्थना पर तुम न पिघलोगी। चन्द्रलेखा-राजन् मुझमे अनादृत न हजिये, बम यहा से चले जाइए। महापिंगल -अच्छा अच्छा -जो है सो क्या नाम -चलिये महाराज ! [दोनों जाते है] चन्द्रलेखा-भगवान् ! तूने रूप देकर यह भी झझट लगाया । देखू इसका क्या परिणाम होता है। प्राणनाथ से मुझे यह बात न कहनी चाहिये, उनका चित्त और भी चंचल हो जायगा। अव तो एक वही इममे बचा सकता है। प्रभो ! एक तुम्ही इस दुःख से उबारने में समर्थ हो। दीनो के पुकार पर तुम्ही तो आते हो । आओगे? बचाओगे नाथ ! कितना ही दु.ख दो, फिर भी मुझे विश्वास है कि तुम्ही मुझे उनसे उबारोगे, तुम्ही सुधारोगे, विपद्भजन !- कार्तिक, कृष्णा कुहू क्रोध से काले कारका भरे हुए, नीरद जलधेि क्षुब्ध हो भीमा प्रकृति, हृदय भय भरे हुए। खोजा हमने हाथ पकड़ ले साथी कोई नहीं मिला, दीप मालिका हुई वही पर तेरी छवि की, प्राण मिला। दृश्यान्तर १८६ : प्रसाद वाङ्मय