पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/२०१

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ताप ॥ चन्द्रलेखा-प्रियतम ! बनाकर आँख की पुतली तुम्हें । तुम्हारे साथ मैं खेला करूंगी विशाख -इस अनुरोध से जीवन सार्थक हुआ। अब तो मेरा ही मन कही नहीं जाना चाहता। अच्छा, तब तक मैं यही थोड़ी दूर टहल आऊं। क्या तुम भी मेरे साथ चलोगी? चन्द्रलेखा- अच्छा, जब तक मैं धान रखवाती हूँ, तब तक तुम आ जाना। विशाख-अभी आता हूँ। (जाता है) [दूसरी ओर से घोड़ा आकर धान खाने लगता है । चन्द्रलेखा स्वयं उसे हटा देती है। नरदेव और महापिंगल का प्रवेश] नरदेव-स्वेद से भीगे हुए घोड़े की पीठ पर कैसी सुन्दर सुकुमार कर की छाप थी ? महापिंगल, यही स्थान है न ? अहा- स्वीकृति प्रेम प्रशस्ति पर कञ्चन कर की छाप । हमे ज्ञात होती मखे, मिटा हृदय का [महापिंगल चन्द्रलेखा को दिखाता है] महापिंगल–पर यह तो कहिये आप बिना कहे-सुने किसी के घर में क्यों चले गये? नरदेव -इस सुहावने कानन में किसी का घर है, यह जान कर मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई और बिना कहे-सुने ही तो अतिथि आते हैं । महापिंगल--न-न-न ! आपके-से अतिथि को दूर ही से दण्डवत । (चन्द्रलेखा की ओर देख कर)-क्यों मुन्दरी । (राजा भी उसे देखता है) चन्द्रलेखा-(राजा को पहचान कर नमस्कार करती है) पृथ्वीनाथ, यह दासी आपसे क्षमा मांगती है । मैंने जाना कि घोड़ा श्रीमान् का हा है। महापिंगल -हाँ, हाँ, उसे जानने की क्या आवश्यकता थी जिसने धान खाया उसने चपत पाया। नरदेव --यह तुम्हारा ही घर है ? सुन्दरी ! चन्द्रलेखा -यह झोपड़ी दासी की है। श्रीमान्, यदि मृगया से थके हुए हों तो विश्राम कर लें। मैं आतिथ्य करने के योग्य नहीं, तब भी दीनों की भेंट फलमूल स्वीकार कीजिये। महापिंगल-मैं तो हिरन के पीछ चौकनी भरते-भरते थक गया हूँ। अब तो बिना कुछ भोजन किये मैं चल नहीं सकता ! जो है सो क्या नाम, एक पग भी। [बैठ जाता है । चन्द्रलेखा राजा के लिये मंच लाती है। नरदेव भी बैठता है] विशाख १८५