पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/१९९

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नरदेव-(हंसता हुआ)-अरे मूर्ख ! बन्दर नहीं भागा है। महापिंगल-फिर यह विचारों की चौलत्ती क्यों चल रही है ? नरदेव-दुष्ट ! भला क्या तूने मेरे हृदय को घुड़साल समझ रक्खा है । महापिंगल-तो फिर और क्या ! संकल्प-विकल्प सुख-दुःख पाप-पुण्य, दया- क्रोध इत्यादि की जोड़ियां इसी घुड़साल में बंधती है । नरदेव -पर लात तुम्हीं खाते हो । (हँसता है) महापिंगल-और पीड़ा आपको हो रही है ? नरदेव-सच तो पिंगल ! आज चित्त बड़ा उदास है, कही भी मन नहीं लगता। - महापिंगल-मन बैठे-बैठे चरग्वे की तरह घूमता है। यदि रथ के चक्के की तरह आप भी घूमने लगिये, फिर तो वह धुरे की तरह स्थिर हो जायेगा। नरदेव-(हँस कर)-तो कहां घूमने चलूं ? महापिंगल-देव ! मृगया के समान और कौन विनोद है। गर --विषम-वन की ओर चलूं ? महापिंगल-नही, नही, उधर तो फाड़ खाने वाले जन्तु मिलते है । रमण्याटवी की ओर चलिए, जहां मेरे खाने योग्य कुछ मिले । नरदेव-डरपोक । अच्छा उधर ही सही ! महापिंगल-(अलग)-बहुत शीघ्र प्रस्तुत हो गये। उधर तो सोंधी बास आती है (प्रकट)-अच्छा तो मैं अश्व प्रस्तुत करने को कहता हूं। नरदेव-शीघ्र (महापिंगल जाता है)-उधर वसन्त की वनश्री भी देखने में आवेगी, साथ ही मनोराज्य की देवी का भी दर्शन होगा। अहा ! [महापिंगल दौड़ता हुआ आता है] महापिंगल-महाराज ! विनोद यही हो गया। आ गयी, सरला गाना सुनाने आ गयी है । दुहाई है, आज इसका नृत्य देखिये । कल मृगया को चलिये । नरदेव- [सरला आती है और गाती है] मेरे मन को चुरा के कहाँ ले चले। मेरे प्यारे मुझे क्यों भुला के चले ॥ ऐसे जले हम प्रेमानल में जसे नही थे पतंग जले ! प्रीति लता कुम्हिलाई हमारी विषम पवन बन कर क्यों चले। दृश्यान्तर -अच्छा। विशाल: १०३