पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/१९६

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

दिन सन्ध्या को वितस्ता के तट पर बाल खोले सुन्दरी बैठी थी। है तो अच्छी, पर बाल उसके झार की तरह लम्बे थे। हूं, वह नहीं। अच्छा वह, हाँ हाँ ! परन्तु नहीं, उसकी नाक इतनी लम्बी थी कि सुवा केला की फली समझ कर ठोर चलाने लगे। नहीं-नहीं, वह तो मेरे प्रेम के योग्य नहीं। अच्छा ! वह तो ठीक रही, न-न-न, बाप रे! उसकी आंखें देखकर डर लगता हैं । जैसे किसी ने मार दिया हो और वह निकली पड़ती हों। भाई मुझे तो कोई समझ में नहीं आती। अरे यहां कोई है (इधर-उधर देखकर)-कोई नहीं है कि मुझे इस विपत्ति में सलाह दे। इसीलिये तो बड़े आदमी पार्श्वचर रखते हैं (सोचता है)-हा-हा-हा-हा, बुद्धू ही रहे । कहाँ- के-कहां दौड़े गये, पर अपना सिर नहीं टटोला। अरे, वह मेरी घरवाली। नहीं-नहीं उसके दोनों नथने दो भयानक सुरंग के मुंह से खुले रहते हैं, कभी ऊंघते हुए उसी में न घुस जाऊँ। ना बाबा, हाँ, अब याद आया, धत्तेरे की, उस दिन सुश्रवा नाग के पहां जो मैं गया था तो एक चन्द्रलेखा थी, दूसरी कौन थी? वह इरावती, अहा हा, मैं तो प्रेमी हो गया। राजा, चन्द्रलेखा और इरावती पर मैं आसक्त हुआ। हो गया। अब मैं प्रेम करने लगा। तनिक लम्बी-लम्बी सांस तो लूं। आंखों से आंसू बहाऊँ। प्रिये, प्रियतमे ! इस दास"" (लेट जाता है। तरला आकर धौल जमाती है) तरला-बुढ़ापे में प्रेम की अफीम खाने चला है । महापिगल-(घबड़ाकर हाथ जोड़ता हुआ) नही, मैं तो अफीम नही भांग पीता हूँ। भांग तो अभी है न ? तरला-पिलाती हूँ। तुझे संखिया घोलकर पिलाती हूँ। कोन निगोड़ी है, जिस पर तुझे बुढ़ापे में मरने का सुख मिलने वाला है। महापिंगल-(उसी तरह) कोई नही, कोई नहीं, तुम्हारी चञ्चलता की शपथ। तरला-कोई नहीं। अभी क्या कहते थे बैल के भाई ! हम लोगों ने तो कभी दूसरे की ओर हंसकर देखा कि प्रलय मचा, व्यभिचारिणी हुई, और तुम्हारे ऐसे साठ वर्ष के खपट्टों को प्रेम वाले दूध के दांत जमे । महापिंगल-(बिगड़ कर) क्या कहा, मैं साठ वर्ष का हूँ। यह मुझे नहीं सहन हो सकता, अभी मेरी मूंछे काली है। आँखों में लाली है। (उंगली पर गिनता हुआ) चालीस पांच पैतालिस तीन अड़तालीस वर्ष ग्यारह महीना एक पक्ष एक सप्ताह छः दिन पाँच पहर एक घड़ी सवा दण्ड साढ़े तीन पल का हूँ। तात्पर्य, पचास वर्ष से भी कम से भी कम का हूँ । तरला -(सफेद बालों का गुच्छा पकड़ कर खींचती हुई) और यह क्या है ! १८. प्रसाद वाङ्मय