पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/१८४

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विशाख -धन्य धन्य, क्या गाया। महापिंगल-तुम्हारा सिर ! और क्या? ऐसा मूर्ख तो देखा नहीं। कहाँ से पहाँ चला आया; निकल जा यहाँ से ! कोई है ? विशाख-क्षमा हो, मुझसे अपराध क्या हुआ ? मैं तो एक क्षुद्र-जीव आपका शरणागत हूँ। महापिंगल-हाँ बच्चा ! अब तुम परीक्षा में उत्तीर्ण हुए। बड़े लोगों का चित्त अव्यवस्थित रहता है, वह अपना भूला हुआ क्रोध कभी अचानक ध्यान कर लेने पर, इसी तरह बिगड़ बैठते हैं। उस समय उनकी बातों से इसी तरह ठण्डा करना चाहिये । अब तुमको राजा का दर्शन मिलेगा। विशाख-(अलग)--हे भगवान्, तो क्या ये आदमी भी काटनेवाले कुत्तों से कम हैं ! उनको क्रोध का रोग होता है या अभिमान और गर्व दिखलाने का यह बहाना है ? (प्रकट) श्रीमन् कब ? महापिंगल-अच्छा फिर कभी आना। क्या राजा लोग इस तरह शीघ्र किसी से भेंट करते हैं । हाँ तुम्हारा अभीष्ट क्या है ? सो तो कहो । विशाख-कुछ नही, एक सुन्दरी की कुछ करुण कथा निवेदन करनी है । उसके दुःख-मोचन की प्रार्थना है। महापिंगल-क्या विरह-निवेदन | तब तो महाराज से तुम्हें शीघ्र मिला दूंगा। किन्तु गड़बड़ बातें न कहना । विशाख-श्रीमान् राज-सहचर हैं। बौद्ध साधु की कुकर्म-कषा राजा के कानों तक पहुंचाना मेरा अभीष्ट है, उमने एक सुन्दरी को अपने मठ में बन्द कर रक्खा है। महापिगल-सुन्दरी और साधु का सरस प्रयोग है-साधु वर्ण विन्यास है, सु"सा" साहित्य का सुन्दर समावेश है। फिर तुम्हारे-से अरसिक उसमें गड़बड़ क्यों मचाना चाहते है ? विशाख–श्रीमन् ! आपके कानों ने आपकी बुद्धि को मूर्ख बनाया है। साधु ने सुन्दरी को पकड़ मंगाया है, कुछ मुन्दरी ने साधुता नही ग्रहण की है। महापिगल- --सत्य है क्या ? बौद्ध भिक्षु होकर अपने मठ में उसने स्त्री रख ली है ! विशाख-वे तो उसे मठ नही, विहार कहते हैं ! महापिंगल-अच्छा चलो, तुम्हे राजा से मिलाता हूँ। दृश्यान्तर १६८:प्रसाद वाङ्मय