पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/१८२

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। चन्द्रलेखा - मैं तो खोज रही थी, अभी ही घर से निकल पड़े है । जाने दो क्षमा करो। मुझे मार लो। मेरे बूढ़े पिता को छोड़ दो। [घुटने के बल बैठ जाती है] भिक्षु--अर र र, यह कहाँ से आ गई ! छोडो जी, उस बूढे को छोड़ दो ! जब यह स्वयं कहती है तो उसे छोड़ दो, इसे ही पकड लो ! [सब भिक्षु आपस में इंगित करते हुए बूढ़े को छोड़ कर चन्द्रलेखा को पकड़ ले जाते हैं । महन्त भी जाता है । सुश्रवा मूच्छित होकर गिर पड़ता है ] दृश्यान्तर द्वितीय दृश्य [स्थान-राजद्वार के समीप छोटा-सा उपवन, महापिंगल और विशाख] महापिगल-क्यों. हमको जानते हो--हम कौन है ? विशाख-क्षमा कीजियेगा, अभी तक पूरी जानकारी नही है। फिर भी आप मनुष्य है, इतना तो अवश्य कह सकूँगा। महापिगल-मूर्ख महामूर्ख; विदित होता है कि अभी तुम कोरे बछडे हो। पाठशाला का ज़आ फेक कर या तोड-ताडकर भगे हो | राजसभा के विनय-पाठ तुमको सिखाये नही गये क्या ? वताओ तो तुम्हारा कौन शिक्षक है, उसे अभी शिक्षा दूंगा! विशाख-मेरे शिक्षक आपकी तरह कोई दुमदार वा उपाधिधारी जीव नही है । उन्ही के यहाँ तुम्हारे ऐसे कोडियो पशु, राजमान्य मनुष्य बनाये जाते है । महापिगल-मै उन महाराज की, जिनके यहाँ बुद्धि नाटको के स्वगत की तरह रहती है, आँख, नाक और कान हूँ, तुम नही जानते ? विशाख--आँख, नाक और कान ? कदापि नही, हाँ चरण वा चरण-रज हो सकते हो। महापिगल--चुप रह, क्या वड़-बड़ करता है। विशाख-धन्य ! ऐसे शब्द मुंह से निकालना आप ही को आता है। भला कहिए, बुद्धि नाटको के स्वगत की तरह कैसी? महापिगल-जैसे नाटको के पात्र स्वगत जो कहते है, वह दर्शक-समाज वा रंगमञ्च तो सुन लेता है, पर पास खड़ा हुआ दूसरा पात्र नही सुन सकता, उसको भरत वावा की शपथ है, उसी तरह राजा की बुद्धि, देश-भर का न्याय करती है, पर राजा को न्याय नहीं सिखा सकती। विशाख--फिर आप लोगों का कैसे निर्वाह होता है ? १६६ : प्रसाद वाङ्मय