पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/१८०

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विशाख-घबराने की कोई आवश्यकता नहीं है, आप लोग जायें। मैं अभी कुछ उससे बातचीत करूंगा। [चन्द्रलेखा और इरावती जाती हैं । बौद्ध भिक्षु का प्रवेश] महन्त-(आप-ही-आप)-ऐसा खेत किसी का भी नहीं है। किन्तु हाँ, जानवरों से बढ़कर उन लोगों से इसकी रक्षा होनी चाहिये जो दो पैर पशु हैं ! (गाता है) जीवन भर आनन्द मनावे, खाये पीये जो कुछ पावे । लोग कहें छोड़ो यह तृष्णा --लिपट रही है सौपिन कृष्णा, सुखद बना संसार कुहक है, क्यों छुटकारा पावे । जननी अपनी हाथों से जब, बालक को ताड़न करती तब रोकर करुणाप्लुत हो सुत फिर मां को उमी बुलावे । उसी तरह से दुख पाकर भी, मानव रोकर या गाकर भी, संसृति को सर्वस्व मानता, इसमें ही सुख पावे । विशाख-(सामने आकर)-महास्थविर, अभिवादन करता हूँ। भिक्षु - धर्म-लाभ हो । विन्तु यह तो कहो, इस तरह तुम यहां क्यों छिपे हो ? मेरा खेत तो विशाख-चर नही गया, आप घबरायें नहीं। भिक्षु-नहीं, नही; इससे हमारे-जैसे अनेक धार्मिक और निरीह व्यक्तियों का निर्वाह होता है, उमलिए इसकी रक्षा करनी उचित है। विशाख-आपको यह भूमि किमने दी है ? आपका इम पर कैसा अधिकार हैं ? भिक्षु - (क्रोध से) -तू कौन ? राजा का माला कि नाती कि घोड़ा; तुझसे मतलब? विशाख -मैंने अच्छी तरह विचार कर लिया है कि आपको इतनी भूमि का अन्न खाकर और मोटा होने की आवश्यकता नही । भिक्षु-और तुझे है ? चला जा सीधे यहां मे, नहीं तो अभी खेत की चोरी में पकड़ा दूंगा, यह लम्बी-चौड़ी बहस भूल जायेगी। अरे दौड़ो-दौड़ो ! विशाख -(एक ओर देकर)-अरे वह देखो भेड़िया आया ! [भिक्षु घबरा कर गिर पड़ता है और विशाख चला जाता है] भिक्षु -(इधर-उधर देखकर उठता हुआ)-धत्तेरे की ! धूर्त बड़ा दुष्ट था। चला गया, नही तो मारे डण्डों के, मारे डण्डों के--(डण्डा पटकता)- खोपड़ी तोड़ डालता। . १६४ : प्रसाद वाङ्मय