पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/१७९

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इरावती-मेरा नाम इरावती है और इस मेरी छोटी बहिन का नाम चन्द्रलेखा है। विशाख- -सच तो- घने घन-बीच कुछ अवकाश में यह चन्द्रलेखा-सी । मलिन पट में मनोहर निकष पर हेम-रेखा-सी। [चन्द्रलेखा लज्जित होती है और हट जाती है] इरावती-भद्र, हम लोग दारिद्रय-पीड़िता हैं, फिर आप भी उपहास करके अपमानित करते हैं ! विशाख-देवी, क्षमा करना। मेरा अभिप्राय ऐसा कभी नही था-(रुक कर)-हां आप लोगों की यह दशा कैसे हुई ? इरावती-देव ! हम नागों की सारी भू-सम्पत्ति हरण करके इस क्षत्रिय राजा ने एक बौद्धमठ में दान कर दिया है ! विशाख-(स्वगत)-क्यों न हो, इसी को आजकल धर्म कहते हैं। किसी भी प्रकार से उपार्जित धन को धर्म मे व्यय करने का अधिकार ही कहाँ है । ऐसों को धर्मात्मा कहें कि दुष्टात्मा ! क्योंकि वे यह नहीं जानते कि दूसरों का गला काट कर कोई धर्मशाला, मठ या मन्दिर बना देने से ही उनका पाप नही धुल जाता है। अच्छा फिर- इरावती-हम लोग तबसे अन्नहीन, दीन-दशा में, इस कष्टमयी स्थिति में जीवन व्यतीत कर रही है। इन क्षेत्रों का अन्न यदि गिरा पड़ा भी बटोर ले जाती हूँ तो भी डर कर, छिपकर । विशाख -आप लोगों के पिता से कहाँ भेंट हो सकती है ? अभी तो मैं तक्षशिला से पढ़कर लौटा आ रहा हूँ, संसार मे मेरा अभी कुछ समझा हुआ नही है । इसलिये व्यवहार की दृष्टि से यदि मेरा कोई प्रश्न अनुचित भी हो तो, देवियो ! क्षम्य है । इरावती-फिर आप क्यों इस पचड़े में पड़ते है ? विशाख-उपाध्याय ने यह उपदेश दिया है कि दुप्पी की अवश्य सहायता करनी चाहिये । इसलिये मेरी इच्छा है कि मेरी सेवा आप लोगों के सुख के लिये हो। इरावती -भद्र ! आपकी बड़ी दया है किन्तु आप इस झंझट में न पड़ें। विशाख-(स्वगत)-मैं तो कभी न पड़ता यदि इस संसार में पदार्पण करने की प्रतिपदा तिथि में यह चन्द्रलेखा न दिखाई पड़ती। (प्रकट)-संसार में रह कर कौन इससे अलग हो सकता है ! चन्द्रलेखा-(स्वगत)-धन्य पर-दुःख-पातरता ! इरावती-रमणकह्रद पर मेरे पिता रहते हैं, वहीं आप उनमे मिल सकते हैं। (बौद्ध महन्त को आते देख)-यह महन्त बड़ा ही भयानक है। आप इससे सवेत रहियेगा । वह देखिये आ रहा है । अब हम लोग चली जायें, नहीं तो.... विशाख : १६३