विकटघोष-सुरमा ! वह उपालम्भ बड़ा कठोर है ! सुरमा, मैं देवलोक से तुम्हारे लिये गिर पड़ा-केवल तुम्हें पाने के लिये, फिर भी यह ! (मद्यप की-सी चेष्टा करता है) [सुएनच्चाङ्गको लिये हुये डाकुओं का प्रवेश विकटघोष-हा हा हा हा ! आ गया ! क्यों, धर्म कमाने आया था, तो पूंजी के लिये कुछ रुपये भी लाया था ? सुएनच्वाङ्ग-दस्युराज ! मैं रुपये लेकर नहीं आया हूं। मेरे पास थोड़ा-सा धर्म और कुछ शान्ति है-तुम चाहते हो लेना ? विकटघोष-मूर्ख ! शान्ति को मैंने देखा है, कितने शवों में वह दिखायी पड़ी! शान्ति को मैंने देखा है दरिद्रों के भीख मांगने में। मैं उस शान्ति को धिक्कारता हूँ धर्म को मैंने खोजा-जीर्ण पत्रों में, पण्डितों के कूटतर्क मे उसे बिलखते पाया, मुझे उसकी आवश्यकता नहीं । सुएनच्वांग-तब क्या चाहिये । विकटघोष - या तो धन दे या रक्त । जो मुझे धन नही देता, उसे मेरी देवी को रक्त देना पड़ता है। सुएनच्चांग-रक्त से किसकी प्यास बुझती है, जानते हो ?-पिशाचों, पशुओं की-तुम तो मनुष्य हो। विकटघोष-ओह ! मेरी प्रतिमा- मेरी क्रूरता की देवी-नरबलि चाहती है। तू बहुत स्वस्थ है-विदेशी। मैंने राज-रक्त से पहले-पहल हाथ रंगा था वह कितना लाल था ! उसका मनोरंजन कितना ललित था ! सुरमा ! स्मरण है वह राज्यवद्धंन की हत्या ? बड़ी उत्साहवर्धक थी वह ! सुरमा- प्रिय ! वह भयानक दृश्य था-आह मैं गा रही थी, राज्यवर्द्धन के हाथ मे मदिरा का पात्र था और तुम थे खड़े। उसकी मदिर दृष्टि मुझ पर पड़ी थी। अनुचर सब मद-विह्वल थे। सहसा तुम्हारी आँखें चमक उठी, ज्योंही राजकुमार ने मेरी ओर हाथ बढ़ाया-दूसरा पात्र मांगा, तुमने कितनी भीषणता से प्रहार किया ! वह छुरी पत्थर का कलेजा भी छेद देती-राज्यवर्द्धन तो साधारण मनुष्य था। विकटघोष-हाँ सुरमा ! वह मेरा हाथ ! अब तो मैं रक्त देख कर अत्यन्त प्रसन्न होता हूँ ! यात्री ! तो आज ही तुम्हारी बलि होगी, प्रस्तुत रहो ! सुएनच्वांग-मुझे प्रार्थना कर लेने दो। सुरमा-देवी की जय ! १४८ : प्रसाद वाङ्मय
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