पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/१६२

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अनेक लोग हताहत हो गये हैं। क्या तुम लोग उन आहतों की सेवा-शुश्रूषा कर सकोगे? राज्यश्री-क्या ? कुमार हर्षवर्द्धन ! दिवाकरमित्र-हाँ देवी, चलो आश्रम समीप है। [प्रस्थान दृश्यान्तर] तृतीय दृश्य चलावे। [रेवा-तट को युद्ध-भूमि-रण-वाद्य बजता है। एक ओर से हर्षवर्द्धन और दूसरी ओर से पुलकेशिन् अपनी सेना के साथ जाते हैं] हर्षवर्द्धन–चालुक्य | तुम वीर हो । पुलकेशिन् -उत्तरापथेश्वर ! अभी मुझे अपनी वीरता की परीक्षा देनी है, क्योंकि विदेशी हूणों को विताड़ित करने वाले महावीर हर्षवर्द्धन के अस्त्र का आज ही सामना है। हर्षवर्द्धन-पर मैं अब युद्ध न करूंगा । (हाथ उठाकर) ठहरो कोई अस्त्र न [रण-वाद्य बन्द हो जाते हैं] पुलकेशिन्--क्यों ? युद्ध से विश्राम क्यों ? हर्षवर्द्धन-मुझे साम्राज्य की सीमा नही बढानी है। वसुन्धरा के शामन के लिए एक प्रवीर की आवश्यकता होती है, सो इधर दक्षिणापथ में उसका अभाव नही। महाराष्ट्र सुशासित वीरनिवास है। मुझे तो उत्तरापथ के द्वार की रक्षा करनी पुलकेशिन्-नही, नही, बातों से काम नही चलेगा सम्राट् ! आज मुझे क्षात्र- धर्म की परीक्षा देनी है-युद्ध होगा। हर्षवर्द्धन-कभी नही। यों तुम अपनी विजय-घोषणा कर सकते हो, क्योंकि मेरी गजवाहिनी तुम्हारे अश्वारोहियो से विस्त्रस्त हो चुकी है परन्तु अब मैं युद्ध न करूंगा; व्यर्थ इतने प्राणो का नाश न होने दूंगा। चालुक्य, मैं सन्धि का प्रार्थी हूँ। और भी सुनोगे? हम लोग साम्राज्य नही स्थापित करना चाहते थे; मगध के मम्राटों की दुर्बलता से उत्तरापथ हूणों से अरक्षित था आपाततः मुझे युद्ध करना पड़ा। उधर मेरे आत्मीय मौखरी ग्रहवर्मा का षड्यन्त्र से वध हुआ ही था-भाई राज्यवर्द्धन की भी हत्या हुई। मैं अकारण दूसरो की भूमि हड़पने वाला दस्यु नही हूँ। यह एक संयोग है कि कामरूप से लेकर सौराष्ट्र तक, काश्मीर से लेकर रेवा सक, एक सुव्यवस्थित राष्ट्र हो गया। मुझे और न चाहिये। यदि इतने ही मनुष्यो को सुखी कर सकू-राज-धर्म का पालन कर सकू, तो कृतकृत्य हो जाऊँगा। १४६ : प्रसाद वाङ्मय