पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/१६०

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

ओर देखकर) और तुम तो अवश्य गा सकती हो। चलो, मुझे तुम दोनों की आवश्यकता है। विकटघोष तो मेरा पुरस्कार ? नरेन्द्रगुप्त -काम देखकर मिलेगा। आज शिविर में राज्यवर्द्धन का निमंत्रण है, उसी उत्सव में तुम लोगों को चलना होगा। विकटघोष-(अलग सुरमा से) राज्यवर्द्धन--सुरमा, तुम्हारे भाग्याकाश का धूमकेतु; और मेरे लिए तो सभी शत्रु है । बोलो, क्या कहती हो ? सुरमा- जो करो, मैं प्रस्तुत हूं। (अलग) हाय, दूसरा पथ नही यदि मैं कहती हूँ कि नहीं तो, उहूँ"फिर, यही सही; इस ओर से भी प्राण नहीं बचता। विकटघोष-हम लोग चलेंगे। नरेन्द्रगुप्त -तो चलो। [सब जाते हैं/मधुकर का प्रवेश] मधुकर -प्राण बचे बाबा, अब इन राजाओं के फेर में न पड़ेंगा। ओह उस विकटघोष का बुरा हो, कहाँ से टपक पड़ा ! राज्यश्री भी कहीं इधर-उधर चली गयी होगी। सुरमा का दुर्भाग्य ! वह भी कुछ ही दिनों के लिए रानी बन गयी थी ? मुझे छुट्टी मिली इस प्रतिज्ञा पर कि मैं राज्यश्री की खोज निकालंगा; पर जाऊँ किधर ? वह बड़े-बड़े शिविर पड़े दिखाई दे रहे है, तो उधर ही चलू । हूँ, सोंधी बास भी तो आ रही है--चलं ? नहीं अब भागो; ब्राह्मण देवता! भीख माँग कर खा लेना ठीक है; पर किमी राजा के यहाँ कदापि न... (प्रस्थान) [दृश्यान्तर] ! द्वितीय दृश्य [कानन में राज्यश्री को लिये हुए दोनों दस्यु] राज्यश्री-मैं दुखी हूँ, दस्यु ! तुम धन चाहते हो; पर वह मेरे पास नहीं ! इम विस्तीर्ण विश्व में मुख मेरे लिये नही. पर जीवन ? आह ! जितनी सांसें चलनी है, वे चलकर ही रुकेंगी। तुम मनुष्य होकर हिंस्र पशुओं को क्यों लज्नित कर रहे हो; इस श्मशान को कुरेद कर जली हुई हड्डियों के टुकड़ों के अतिरिक्त मिलेगा क्या ? पहला दस्यु-रन्तु मै तुमको छोड़ें कैसे, क्या करूँ ? तुम मुझे कुछ धन दिलवा दो। राज्यधी-अर्थी ! तुम इतने मूर्व हो ! मेरा राज्य छिन गया, सब लुट गया, भला अब मैं कहाँ से दिलवा दूं ? १४१ : प्रसाद वाङ्मय