विकटघोष-वहां चलने पर बताऊंगा; पहले किसी प्रकार शिविर में घुसना होगा। सुरमा-तुम किसी बात को सोचते हो तो बड़ी तीव्रता से ! विकटघोष-यही तो मेरी सरलता का प्रमाण है, सुरमा ! अब शील-संकोच का डर मुझे नही भयभीत कर सकता। यहाँ तक वढ आने पर लौटना असम्भव है ! [नरेन्द्रगुप्त का एक सहचर के साथ प्रवेश/ विकटघोष और सुरमा का छिप जाना] नरेन्द्रगुप्त -वयस्य ! बडी विषम समस्या है। राज्यवर्द्धन आज मेरे शिविर मे आवेगा, बस यही अवसर है। मगध के गुप्तो का गौरव इन वर्द्धनो के चरणो मे लोट रहा है ! मुझसे नही देखा जाता। सहचर- इसीलिये तो परभट्टारक ने आपको सुदूर गौड मे भेज दिया है। आपकी तेजस्विता से आपके कुल के लोग भी सशंक है। नरेन्द्रगुप्त-किन्तु भभक उठने वाली अग्नि को किसी उपाय से गान्त कर लेना महज नही - मै इन उपायो से और भी उत्तेजित हो गया हूँ। सम्बन्धी होकर वे मेरी अपम नना करे और मै शील की आड लेकर अपनी दुर्वलता छिपाता फिरूं ? असम्भव है ! आज इसका निबटारा करना है । राज्यवर्द्धन मेरे हाथ मे होगा, उसका अन्त होने पर हर्षवर्द्धन-कल का छोकरा-उसे उँगलियों पर नचा दूंगा। सहचर -परन्तु क्या आप स्वय हत्या करेगे? नरेन्द्रदेव-नही--यह नो असम्भव है। मुझे एक साहसिक और वेश्या की आवश्यकता है, जिसमे वह प्राणो के साथ कीत्ति से भी वचित रहे । परन्तु मिले जब तो! सहचर-यह घटना आकस्मिक रूप से होनी चाहिये। तो फिर कहिये, मै लाऊँ! [विकटघोष सुरमा से संकेत करता है, दोनों बाहर आते हैं] नरेन्द्रगुप्त-तुम लोग कौन हो ? विकटघोष-हम लोग गायक है नरेन्द्रगुप्त (देख कर) क्यो जी, यह तो हम लोगो के काम का मनुष्य हो सकता है ? - (विकटघोष से)-तुम गायक नहीं हो, तुम्हारे मुख पर तो कला की एक भी रेखा नही है । स्पष्ट, रक्त और हत्या का उल्लेख तुम्हारे ललाट पर है। विकटघोष-जीवन बडा कठोर है, इ.की आवश्यकता जो न करावे ! सच बात तो यह है कि मुझे अपने सुख के लिए सब कुछ करना अभीष्ट है। नरेन्द्रगुप्त- वही तो पुरुषार्थ की बात है, तुममे पूर्ण मनुष्यता है (सुरमा की राज्यश्री.१४३
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